Saturday 10 January 2015

...gar kaho to kuchh..?

.. ग़र कहो तो कुछ पूँछूँ तुमसे,.?
कुछ ऐसा जो आवश्यक है,. 
कितना आवश्यक नहीं पता,
पर शायद हम दोनों के लिए,.
क्यूँ मैं तुमसे आशा न करूँ ,
और कैसे बिन उम्मीद रहूँ,.?
क्यूँ मैं तुमसे कुछ न पूँछूँ ,. 
और कैसे बन गंभीर रहूँ,?
क्यूँ मैं हर बार सहूँ सब कुछ ,.
और बदले में उफ़  भी न करूँ ,?
क्यूँ मैं तुमसे कुछ न पूँछूँ ,
और कैसे भला खामोश रहूँ ,?
… 
***
प्रश्नों की नहीं सीमा कोई ,
ये प्रश्न हैं जो बतलाते हैं। 
जब हो अपार दुःख प्राणों को , 
निष्कर्ष समझ नहीं आते हैं.…। 
था स्वप्न कि ,ऐसा रिश्ता हो,
तुम वाक्य बनो मैं पूर्णविराम।
पर स्वप्न तो आखिर स्वप्न हि हैं ,
मैं सुबह बना तुम बनी शाम। 
.... 
***
है ज्ञात मुझे इस बार भी तुम ,
अनभिज्ञ मुझे कह जाओगी।
अब तक जो सुनता आया हूँ,
कुछ वैसा ही फिर कह जाओगी।
लेकिन इस बार यहाँ किञ्चित ,
संशोधन भी आवश्यक है।  
जो अब तक होता आया है,
उसके होने में रुकावट है। 
… 
***
अब न हि मैं कुछ पूँछूँगा,
और न तुम कुछ बतलाओगी।
जिन राहों पर हम साथ चले,
अब तुम तन्हा  ही  जाओगी।
बस स्मरण रहे यह बात मेरी,
इक दिन तुम ख़ुद पछताओगी।
जिस दिन करके सोलह-श्रृंगार,
हाथों में हिना रचाओगी।
उस दिन माथे की बिंदिया में,
इक अक्स उभरता पाओगी। 
जब होगा तुम्हारा पाणि-ग्रहण,
तुम किसीको सौंपी जाओगी।
उस दिन दीदों को रिक्त मगर,
निज कंठ भरा सा पाओगी।
आवाज़ मुझे देने के लिए,
मुख-जिह्वा में  कम्पन होगा।
पर कोटि कोशिशें कर भी प्रिये,
अधरों  में न स्पंदन होगा। 
मंडप में बजेगी शहनाई,
और मन में करुण-क्रंदन होगा.. 
.... 
***
यह बातें जिस दिन होंगी प्रिये,
उस दिन बस यही समझ लेना।
जो लिक्खा था वह घटित हुआ,
जो अपठित था वह पठित हुआ। 
इसको न समझना अंत प्रिये,.!
यह रम्भ नया कहलायेगा।
जिसको प्रति-पल तुम ध्यान रही,
वो यूँ ही तुम्हें भुलायेगा। 
जो ह्रदय अभी तक कंचन था,
वो अब कुंदन बन जाएगा।
जो सहज अभी तक हासिल था,
अब ला-हासिल हो जाएगा। 
… 
***
इस ग़फ़लत में तुम मत रहना,
तुमसे हो पृथक मर जाऊँगा।
तुम साथ में थी तो दरिया था,
अब सागर बन लहराऊँगा।
कल तक वसुधा को तृप्त किया,
अब मेघों की प्यास बुझाऊँगा। 
जिस माँ ने ममता से सींचा,
जिन तात ने चलना सिखाया है। 
उनके उर को कष्टित कर दूँ, 
ऐसा दुर्दिन नहीं आया है।
और सत्य कहूँ इन चक्षुओं में,
अब नीर नहीं.,अब नीर नहीं,
जिस हिय का पोषण पीड़ा  थी,
उस हिय में भी अब पीर नहीं। 
… 
*** 
मन से  न कभी मुरझाऊँगा,
और न हि शोक मनाऊँगा। 
हाँ ! कभी कहीं गर सीने में,
एहसास सरस सह ऊष्ण हुए,
इक गर्म चाय की प्याली से,
भावों को वाष्प बनाऊँगा।
यदि यत्र-तत्र-एकत्र किन्ही,
यादों ने कभी मुझे घेरा।
सच  कहता हूँ मानो यकीन,
हँस करके उन्हें समझाऊँगा।
उन यादों में अब वो बात नहीं,
यह भान उन्हें करवाऊँगा। 
जो  फिर न कभी भर पाओगी,
स्थान रिक्त कर जाऊँगा। 
जिस तक न पहुँच तुम पाओगी,
उस क्षितिज सदृश बन जाऊँगा 
… 
***
कहने को अहम कुछ शेष नहीं,
जो शेष है इतना विशेष नहीं।
यह पत्र तुम्हारे नाम प्रिये,
इस शख़्स की अंतिम पाती  है। 
जिसमे अब पावक-प्रेम नहीं,
यह उस दीये की बाती  है...यह उस दीये की बाती है.. ।