Tuesday 7 June 2016

..., मेरी बातों का बरगद"

तारीख़-०५मई -२०१६ 

इस पेज पर.,आज से ठीक तीन महीने पहले की भी तारीख पड़ी है.,,५ फ़रवरी२०१६.
उस दिन शायद कुछ लिखना चाहा था.,पर लिख नहीं सके थे..या कहिये के आज लिखना तय था...तो उस दिन भला कैसे लिख लेते..?
अभी इस वक़्त ज़हन में बातों का बरगद...बेज़ार सा नज़र आ रहा है..
"बरगद..
.,बहुत बड़ा सा बरगद..जिसमे ढेर सारी शाखाएं-टहनियाँ.,खूब सारी बड़ी-छोटी-घनी जटाएं..और अपनी मनमानी शैली में अपनी ऐठन के साथ तन कर खड़ा...मोटा तना.जो देखने में कहीं से भी बहोत खूबसूरत नहीं दिख रहा.लेकिन इसकी उलझी हुई शाखों में कहीं ऊपर की ओर कुछ नयी कुछ पुरानी पतंगे भी दिख रहीं हैं.जिनके कागज़ी रंग भले ही कुछ फ़ीके पड़ गये हैं.लेकिन जिनमे अभी भी कुछ तो ऐसा है.,जो कभी फ़ीका,., हो ही नहीं सकता..और वो है उन पतंगों से जुड़ी बातें...उनसे जुड़े किस्से..

***

पिछले महीने अपने शहर जाना हुआ.जहाँ बचपन शुरू हुआ..बीता..
जहाँ से किसी बरगद के बढ़ने की  शुरुआत होती है.
उस बिल्डिंग के गेट पर क़दम रखते ही.,मुझे गेट के बायीं तरफ़ लगे बिजली के खम्भे से छुपकर खम्भे और दीवार के बीच सड़क की  ओर निहारता एक १०-१२ साल का बच्चा दिखता है..जो मैं हूँ..
आज से १२-१३ साल पहले हर रविवार अपने बाबा का इंतज़ार करता हुआ..
गेट से आगे बढ़ने पर सामने के कमरे के बरामदे  में कई चेहरे.,कई आवाजें दिखाई और सुनाई पड़ीं..
सबसे  पहले हाथ में चाय की कप लिए ..आवाज़ देतीं निम्मी दी.,फिर एक तरफ़ टयूशन वाले मास्टर जी..से मार खाता मेरा अपना दोस्त विक्की..और अपना चश्मा ठीक करते मास्टर जी..जिन्होंने शायद एक बार मुझे भी मारा था.और जो लगभग रोज़ ही मारते थे विक्की को.
और फिर शर्मा अंकल की  बड़ी विडियोकॉन की बड़ी कलर टीवी.,जिस पर मैंने लगातार दो दिन दो फिल्मे देखी थीं ..दोस्ती और दुश्मनी.,हिमालय की गोद में..

***

अब उस बरामदे में बड़े रंगीन शीशे लगे हैं..और कमरों में मकान मालकिन के बेटे अपने बीवी-बच्चों के साथ रहते हैं.
गेट से भीतर आते ही थोड़ी सी जगह खाली थी .,जिसमे हम बिल्डिंग के बच्चे(रिशू.,बिट्टू.,प्रीती.,शिवम्.हनी.) क्रिकेट खेलते थे..प्लास्टिक-बॉल से..और जिसकी सिक्स की बाउंड्री.,बगल के मुकेश के घर की  दीवार हुआ करती थी.,जिस पर सिक्स लगाना तब बड़ी वीरता की बात हुआ करती थी.
.,लेकिन अब उस छोटी सी जगह में बीचो-बीच एक दीवार खड़ी कर.,उस पर सीढ़ियाँ बना दी गयीं हैं...और घर का बँटवारा किया जा चुका है.
उस दिन उस तरफ़ जाना मुमकिन न हुआ..मैं अपनी सिक्स वाली बाउंड्री नहीं देख सका,.और न ही उससे होकर ऊपर जाने वाली वो सीढ़ियाँ ही..जिनसे होकर हम ऊपर जाते थे....छुपके-चुपके अपनी पतंगे उड़ाते थे..
..और वहीँ घर के बहार ही ..किसी पीर फ़क़ीर  की  तरह ख़ामोशी  के साथ खड़ा...वो" बरगद का बड़ा सा पेड़..जिसके नीचे की छाँव का घेरा हमारे खेल का मैदान हुआ करता था.
वो अभी भी उसी ख़ामोशी के साथ वहीँ खड़ा है.,पर अब शायद ही बच्चे वहां खेलते हों.
हाँ..,अब उसका वो सूखा तना किसी ने काट दिया है...जिस पर चढ़ कर हम बच्चे उसकी लम्बी-लम्बी जटाओं को पकड़कर हवा में झूल., टार्ज़न बनने की  कोशिश किया करते थे...और गिरते-पड़ते भी थे..

***

आज सालों बीत चुके..इन पतंगों की और बरगद की  जड़ों की बातों को...उनसे जुड़े किस्सों को.,पर न जाने किन मांझों से बाँधा था मैंने,.इन किस्सों के कन्नों को...जो अभी तक टूटे नहीं..उड़ रहे हैं...
आज भी रविवार था..,
रोज़ की ही तरह सुबह उठे और चाय पीने  के लिए घाट की  ओर चल पड़े..
आज थोड़ा जल्दी पहुँच गए थे...अभी तो  रूद्र की चाय की अँगीठी सुहागन भी नहीं हुई थी.
वहीँ सीढ़ियों पर बैठ गए..कुछ देर बाद आफ़ताब मियाँ भी गंगा उस पार पेड़ों के पीछे से धीरे-धीरे  बाहर  आ गए.
अब तक चाय बन चुकी थी.रूद्र ने चाय का पुरवा थमाया.,तो हम चाय लेकर दूसरी जगह आ बैठे,.और तब तक बैठे रहे जब तक.,धूप बर्दाश्त करने के लायक थी.
वहां से वापस आकर सरसरी निगाहों से अखबार भी  पढ़ लिया.
कॉफ़ी भी ख़त्म  की.,बाक़ी सारे काम भी किये...रोज़ के.,लेकिन मन अशांत ही रहा..
इस वक़्त तकरीबन चार बजने वाले हैं.
टेबल-लैंप रौशन है..
सामने पुनीत"का ख़त-बंद लिफ़ाफ़ा रखा है..जो मेरे भाई के अपनेपन की एक मिसाल है.
उसी के पास में डुग्गू की  दी हुई पेन अपने पारदर्शी बॉक्स से झाँक रही है.,जो मेरी बहन की मेरे लिए कुछ करने की एक चाहत है.
टेबल-लैंप के बिलकुल पास रखा पेन-स्टैंड भास्कर भैया के साथ चंद-दिनों में हुई आत्मीयता की एक झलक है.
अमूल-चौकलेट का ये बड़ा सा रैपर मन्जरी दीदा की उनके छोटे भाई के लिए उनका  स्नेह दर्शा रहा है.
...और यहाँ पास में सँभालकर रखा मेरे फ़ोन का खाली डब्बा..माँ की मेरे लिए फ़िक्र की, 
एक और कहानी कह रहा है..
ये सारी चीज़ें मेरे ज़हन में जन्मे ,..बढ़ रहे,..बरगद" की शाख़ों पर सजी पतंगें ही तो हैं....और कुछ तो ख़ुद में ही.,,एक शाख़..

***

@P

...आज तुमने एक वक़्त दिया था.,मिलने का.
और मैं,.. तुम्हारा मुन्तज़िर था..
वहाँ घाट की सीढ़ियों पर बैठे-बैठे.,मन में बहुत सारी बातें आयीं,.जिनमे से एक बात ये भी थी कि.,बाबा का इंतज़ार हमने भले ही हर रविवार किया हो.,लेकिन वो हर रविवार नहीं आते थे..
आज भी वैसा ही एक रविवार रहा..जिनमे मेरा इंतज़ार पूरा नहीं होता था..
...
..अभी के लिए इतना ही..
इसे यहीं., ख़त्म नहीं कर सकता...क्यूँकि,
अभी तो इस बरगद में.,
और न-जाने कितनी शाख़ें.,कितनी जटाएं.,और कितनी पतंगें आनी बाक़ी हैं...
...जो दिन-ब-दिन और घना होगा..
..जो दिन-ब-दिन  और बहुत कुछ देखेगा..और बहुत कुछ सोचेगा-समझेगा..और बढ़ेगा..खूब बढ़ेगा..
..और इस दौर में.,
..उसमे कुछ .,नयी पत्तियाँ भी आयेंगी..नयी..हरी पत्तियाँ..
..,क्यूँकि.,ये मेरे ज़हन का बरगद है...
                                             
                     ..., मेरी बातों का बरगद"








@p