Wednesday 26 August 2015

...मुमकिन है

                   
                       
***   मुमकिन है तुम्हे कुछ याद न हो.,
       जो कल तक थी वह आज न हो.
       पर शायद कुछ-कुछ मसलों पर..तुम ज़िक्र किसी का करती हो.
       जब चाय में चीनी हल्की हो या पाँव में मोच अकड़ती हो...

***  मुमकिन है तुम्हें अब घाटों पर.,
      जाने में न वह दिलचस्पी हो.
      गंगा भी यूँ ही बहती हो.,
      और तुम भी चुप ही रहती हो.
      पर शायद कुछ-कुछ हिस्सों में.,तुम ख़ुद ही ठिठक-सी जाती हो..
      जब चार क़दम पर मंदिर हो.,या गली अचानक मुड़ती हो...  


***  मुमकिन है तुम्हें अब प्यार मुहब्बत.,
      इश्क़ फ़साना लगता हो.
      पारो भी पागल लगती हो.,
      और देव पुराना लगता हो.
      पर शायद कुछ-एहसासों को.,तुम अब भी खूब समझती हो,
      क्यूँ नाम मेरा लेने में तुम अब भी थोड़ा सा रुकती हो.,?


***  मुमकिन है तुम्हें अब वृष्टि-बिन्दु.,
      बाणों सा घायल करती हों.
     सब छत पर भीगने जाते हों.,
    और तुम कपड़े तह करती हो.
    पर शायद कपड़े तह करते-करते.,दो पल पछताती हो,
    जब बारिश बीत ही जाती हो.,और तुम फिर भीग न पाती हो..

***  मुमकिन है तुम्हें अब रंग-अबीर,
      दशहरे कोरे लगते हों.
      सब तुमको अंक लगाते हों,
     और मधुबन भी ले चलते हों.
    पर शायद कुछ-कुछ मौकों पर.,तुम लोचन-दीप जलाती हो,
    जब रात अकेली खाली हो.,और दो दिन बाद दिवाली हो.


***  मुमकिन है तुम्हें अब लोगों की,
      पहले सी याद न आती हो.
     सारा दिन घर की इधर-उधर,
    में अपनी उम्र घटाती हो.
   पर शायद कुछ-कुछ होने पर तुम नाम किसी का लेती हो,
   जब हिच् से हिचकी आती हो या उँगली कभी कट जाती हो..


***   मुमकिन है तुम्हें अब अपनी भी,
       अपनी जैसी परवाह न हो.
       जिस दिल में कभी बस करुणा थी,
      अब उसमे तनिक भी आह न हो.
      पर शायद कुछ-अंदेशों पर तुम फ़िक्र किसी का करती हो,
     जब छत पर बिल्ली रोती हो या बायीं आँख फड़कती हो..
     जब वृश्चिक राशि व्यथित हो उस पर साढ़े-साती चलती हो..
     जब रात बजे हों ढाई यकायक फ़ोन की घंटी बजती हो..
     और  शायद कुछ-कुछ प्रश्नों के उत्तर तुम ढूंढ न पाती हो,
     जब कोई तुम्हें पूंछता हो क्यूँ गला तुम्हारा खाली है,?
     जब कोई तुम्हें टोंकता हो क्यूँ हल्के ही रंग पहनती हो,?
     और शायद कुछ-कुछ बातों पर अनुगूँज किसी की सुनती हो ,
     जब दीदी घर से आते हुए रखना ख़याल यह कहती हो..
     जब माँ ये कहे ढ़ंग से रहना तुम बेपरवाही करती हो..

.....मुमकिन है तुम्हें कुछ याद न हो.,जो कल तक थी वह आज न हो...


 ,.और ऐसे ही न जाने कितने गिनत-अनगिनत क्षण होते होंगे..जब तुम्हें वह शख्स याद आ ही जाता होगा ...जो तुम्हें तुम से भी बेहतर समझता था...
.
..
,फिर थोड़ा संभल कर सोचता हूँ..,तो स्नेहासिक्त हृदय...स्नेहारिक्त हो उठता है..
,..और ख़ुशगवार ख़यालों की खींचतानी थोड़ी थिर ..और थिर हो जाती है..
...मन की लाख मनाही के बाद भी...नेत्र तरल हो उठते हैं..
..धुंधली सी नज़रों में धुंधली सी ही.,कहीं तुम” नज़र आती हो..
..किसी जल;प्रपात की धारा पर तैरती प्रतिविम्ब की भांति...
..और ,पलकें मूँदते ही वह प्रतिविम्ब अब पूर्णतया स्पष्ट हो आता है...
...कितना सु:खद होता है...तुम्हें यूँ देखना..?
...और कितना दु:खद होता है तुम्हें यूँ महसूस करना..?
...
...
...साँसों की एक लम्बी क़तार सीने में उतर कर...होठों पर एक मनमानी मुस्कान उड़ेलती हुई फिर बाहर आ जाती है,.,वापस.!
...और मस्तिष्क मुझसे कहता है..
..कहता है.,
,
,
..,
.
..
...
.,कि,.मुमकिन है...और मुमकिन नहीं भी है...
                         
                      


                                                                                                         @