Saturday 14 May 2016

..,थोड़ा ही सही



थोड़ा ही सही पर पास थी तुम,
इक पाक़ीज़ा एहसास थी तुम..
आये जो मुझे वो रास थी तुम,
और एक अजब सा त्रास थी तुम..
थी अपनी तो तुम सबके लिए, 
पर मेरे लिए कुछ ख़ास थी तुम..
**
रातों की नाज़ुक नीद भी थी,
और सुबह कि पहली चाय थी तुम..
जिसकी अभिव्यक्ति मौन करे,
वही शब्दहीन सी याद थी तुम..
कभी कृष्ण-पक्ष की विभावरी, 
कभी शुक्ल-पक्ष का चाँद थी तुम..
**
थी कभी चमकता भानु गगन,
तो कभी पिघलती शाम थी तुम..
मन-मथुरा जिस बिन निर्धन हो,
उस वृन्दावन का धन थी तुम..
शरदीय-चैत्र नवरात्रि भी थी,
फिर पाक़ माह-ए-रमजान थी तुम.. 
**
इक अन्य-अनन्य कल्पना भी,
और एक अमिय-वरदान थी तुम..
थी पहले-पहल की मुश्किल तुम,
फिर सहज-सिद्ध आसान थी तुम..
खुशियों में अधर-मुस्कान थी तुम,
और दु:खद क्षणों में राम थी तुम..
**
मेरे मन का इक पुष्प-कँवल,
प्राणों का अंतस्थल थी तुम..
बिन जिसके धीरज-धूमिल हो,
सच्चा वो मेरा संबल थी तुम..
मरुभूमि जिसे पा भूमि बनी,
उसकी नियति का जल थी तुम..
**
मेरा सर्वस्व मेरा गौरव,
मेरा जीवन अभिमान थी तुम..
हों सब इससे अनभिज्ञ मगर,
इस सच से कहाँ अनजान थी तुम,?
जैसी भी थी..,जितनी भी थी,
मेरे तो.. ''चारो धाम थी तुम..
मैं इक सागर था प्यासा सा,
और उसकी पावन प्यास थी तुम..
     ..इक पाक़ीज़ा एहसास थी.. तुम'
     ..थोड़ा ही सही पर पास थी.. तुम'


.@