Friday 26 June 2015

...koi purana hisaab


****                                                                      ०० 

 प्लेस: नियर गीता निकेतन इलाहाबाद
दिन: शुक्रवार
वक्त: बस देखते हैं.,अभी..!
....पिछले चार...दिनों से नहीं पता क्यूँ..?
कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा ..,न तो कुछ पढ़ते बन रहा है और ना ही कुछ न पढ़ते बन रहा.,किसी से मिलने का भी मन नहीं हो रहा...
ऐसा पहले भी हुआ है...पर जब भी हुआ है...माँ से बात करके उन्हें सब बता देने से ही सब कुछ फिर अच्छा लगने लगता था.
पर इस बार.,माँ को कई-बार बताया...
.,पर अभी भी लग रहा है कि., कुछ रह गया है जैसे...
ऐसा शायद इसलिए लग रहा है क्योंकि, वो बात बता ही नहीं सके माँ से जिसे बता देने के बाद सब सुकूँ भरा लगने लगेगा... 
इस वक्त रात के पौने दो बज रहे हैं.
रोज ही की तरह...मेरी कलाई घड़ी में ,और सेल फ़ोन में 01.49 AM...
,हमने ऊपर कुछ अधूरा  लिख दिया .,मतलब आसपास का अँधेरा तो रात ही बता रहा है लेकिन ,ये AM कुछ और.,.
हम कह सकते हैं कि सुबह होने में ज़्यादा वक्त नहीं है.,हम अगले दिन में आ चुके हैं और तारीख़ भी बदल चुकी है.
गर्मीं ज़्यादा तो नहीं .,पर गर्मी जितनी  है..,
खिड़की और दरवाज़े दोनों खोल रखे हैं ताकि., थोड़ी बहुत हवा आ सके अन्दर रूम में .,और रूम थोड़ा ख़ुशगवार..थोड़ा ताज़ा लगे..
.,शुक़र है.,ऐसा लग भी रहा है ..,और ऐसे में हमे बनारस याद आ रहा है..
वहाँ भी, कुछ ऐसा ही हुआ करता था..
हम सेकेण्ड फ्लोर पर रहते थे.,हमारे फ्लोर के सभी कमरों के दरवाज़े
ऑल-मोस्ट खुले ही होते थे इस वक्त., सिवाय एक रूम के...
रूम न. 16, आलोक भईया.


****                                                                        0१


आज ये मेर लिए,मेरे भी आलोक भईया हैं.लेकिन शुरूआती दिनों में ऐसा नहीं था.कल तक ये मेरे लिए बस एक गोर और चश्मे-वाले अपनी ज़िन्दगी में बेहद व्यस्त इन्सान थे, जो हमारे वहाँ आने के टाइम से ही सयोंगवाश ग़ायब थे,और रूम पर एक बड़ा सा ताला लगा था.. 
कभी-कभी बहुत ख़ुशी होती है तब भी,जब आप ग़लत साबित हो जाते हैं..और आलोक भईया के बारे में भी ऐसा ही हुआ था. 
वो जितनी व्यस्तता में होते थे उतनी ही फुर्सत में भी...तो कह सकते हैं कि हमने पहले सिर्फ वही देख जो आँखे देखती हैं..दिल नहीं.., 
anyways एका-ध बार देखा था भईया को बस आते जाते.,और उसके बाद उनसे ज़्यादा उनके रूम का ताला ही दिखता था...उनकी रूम कि कुण्डी पर लटका हुआ.....बड़ा सा..
उसी लॉक को देख-देख कर ही...सॉरी.! बड़े वाले लॉक को ही देख-देख कर मन में ये ख़याल आया था कि, हो न हो यार., ये आदमी बहुत बड़ा आदमी है...
महीनो से गायब है..रूम-रेंट देते वक्त दुःख नहीं होगा?? ,और अगर होगा तो रह क्यूँ नहीं रहा??
खैर वहाँ, हमारे फ्लोर पर कुल 8 कमरे थे,जिनमे कुल तकरीबन 12-13 लोग रहते थे ,उनमे  एक आलोक भईया भी शामिल थे.
इनमे से किसी से भी हमने कभी बात करने की कभी कोई कोशिश नहीं की थी..
,बस नही मन होता .,ज़्यादा बात करने का सबसे..
हाँ.! जब होने लगती हैं  बातें ,तो मन करता है कि बस जिससे बातें हो रहीं हैं.,उसे वहाँ तक जान लिया जाय , जहाँ तक वो भी ख़ुद को नहीं जनता हो ..और बस हम उसे अनजान नहीं रहने देते... 
हाँ ,.!तो हम ये कह रहे थे कि, हमारी किसी से बात नहीं होती थी..सभी को लगता भी रहा होगा कि अरे  यार.!बड़ा विचित्र आदमी है...अपनी ही दुनिया में शमिताभ बना घूमता है.
.,फिर किसी दिन भईया वापस आ गए अपनी छुट्टी के बाद और भईया का सभी के साथ बहोत अच्छा रिश्ता था सो भईया ने या और लोगो ने ज़िक्र किया होगा कि..यार, ये है कौन?? और इतना चुपचाप क्यूँ रहता है...?
तो भईया ने कमान सम्भाल ली कि., अब इस ऊँट को पहाड़ के नीचे लाना है..जोक्स-अ-पार्ट भईया को शायद , फ़िक्र हुई होगी कि., कोई परेशानी तो नहीं है इसे.,?!.
सो...
भईया ने बात करने का मन बना लिया , और अब शायद ख़ुदा भी कुछ ऐसा ही चाह रहा था.

 किसी दिन ,हम रात को अपने अनुजों (ये सभी हमारे जूनियर्स हैं लेकिन हमें  इन्हें छोटे-भाई या अनुज कहना ही ज़्यादा पसंद हैं..,.,ये सभी हैं भी बहोत-अजीज़ हमें .,हमारी सम्पदा,हमारी पूँजी हैं ये सब..
पता नहीं क्यूँ?
शुरू से ही इस शब्द “जूनियर्स” से बड़ी कोफ़्त होती आई है हमें  .,समझ में नहीं आता कि जूनियर ही क्यूँ?कहते है लोग..छोटा भाई या छोटी बहन कहने में क्या चला जात है लोगों का.,. . 
सभी नहीं पर लगभग ऐसा ही मानते हैं क्योंकि,
उन्हें लगता है कि भाई या बहन कहने से “स्कोप” खत्म हो जाता है,. ,. क्योंकि BA–MA में लोग एडमिशन ही इसी स्कोप के लिए लेते हैं.,क्यूँकि यहाँ प्लेसमेंट नहीं होती.,क्यूँकि उन्हें इस स्कोप का बड़ा ख्याल होता है और वो इससे तनिक भी समझौता नही कर सकते...
“जूनियर्स”-ऐसा लगता है कि, वो मेरे अंडर कम करता हो और हम उसे हर महीने तनख्वाह देते हों.
वो हमारा subordinate,हो और हम उसके बॉस.
खैर,.! अपनी अपनी बाते हैं कुछ लोग ये कह सकते है कि,हम हर किसी को अपना भाई-बहन कैसे बना सकते है.?
और कुछ लोग इसे प्रोफेशनलिज्म भी कह सकते हैं., ओ-के फाइन ..!.लेकिन अब आगे से थोड़ा और प्रोफेशनलिज्म बरतिए,.! और कहिये.!, कि,ये मेरा जूनियर जी है और मैं  इनका शक्तिमान..;-))
हाँ तो हम कहाँ  थे.?.अपने अनुजों पर.,अब आगे...
.....रवि बाबू'The God,
,महेंद्रTheAngry Man,
,हिमांशु The Khmamoshi,
. ,सुधीर The Momos,
.,और अंत में हमारे कुँवर साहब'.
अब इनके टाइटल्स कि डिटेल्स इस प्रकार हैं..
सबसे पहले रवि,ये कभी कुछ मना नहीं करते.,इनका दिल दरिया भी है और समन्दर भी,.
कभी-कभी तो हमे बड़ी कोफ़्त होती है कि,भगवान ने इन्हें यहाँ कैसे भेज दिया.?
इन्हें कहीं.,और होना चाहिए था ,लेकिन फिर बहुत कुछ सोचकर हम चुप ही रहते हैं.
इन्हें हम देव मानते हैं.
इनमे असीम-सहनशीलता है..और क्या कहूँ,. ये हमारे अन्नदाता हैं.,अतः इन्हें नाराज करने कि भूल कौन करना चाहेगा.?
अब महेंद्र..इन्हें कब और किस बात पर गुस्सा आ जाये,ये इन्हें भी नहीं पता होता.
कभी-कभी तो ये बिचारे अपने बड़े भईया के अत्याचारों से भी तंग आकर कुपित हो जाते हैं.
अब इनके बड़े भईया के अत्याचार क्या हैं?...जैसे महेंद्र का खाने का मन नहीं है लेकिन रवि उसे ज़बरन खिलाने का घोर प्रयत्न करते हैं,.,हालाँकि ये उनकी मोहब्बत" ही होती है,.
जो कि डेवी-जोंस(पाइरेट्स ऑफ़ कैरेबियन का एक खल-चरित्र )के शब्दों में बहुत खतरनाक गलती ,.,लेकिन फिर भी ये उनकी किसी फ़िल्म की  शूटिंग थोड़ी है...जिंदगी है ज़िन्दगी...as सेड बाय बजरंगी इन देल्ही-सफ़ारी
और महेंद्र को फाइनली गुस्सा आ ही जाता है.
एक बात यहाँ उल्लेखनीय है..रवि को ,खिलाने से बहुत प्रेम है.,. ये सबको खिलाते हैं .,और वो भी पूरे मन से.,कोई भेद भाव नहीं.,और भी कई वजहें हैं.,लेकिन डर है कि,मेरी इन बातो को पढ़कर महेंद्र कहीं हम पर भी गुस्सा न हो जाये..और कहे..
ई.! का धोखा..!!!!!!,,.,अगेन बजरंगी..,
अब आते हैं हिमांशु पर,ये अपने आप में एक कलाकृति हैं.
इन्हें तेज बोलने से सख्त़-नफरत है.इतनी नफ़रत कि इसी वजह से आज तक किसी कन्या को दुबारा से कोई प्रस्ताव भी देने कि हिम्मत नहीं कर सके.एक बार किये थे लेकिन इतना धीरे बोले कि लड़की ने सुना ही नहीं.
वो शायद रास्ते पर खड़ी थी,उसे लगा कि लड़का उससे रास्ता छोड़ने के लिए कह रहा है.,और उसने बड़ी मासूमियत से कहा कि,सॉरी बाबु..जाओ.! 
बाप रे..!.आपकी cuteness कभी-कभी आपके लिए आपके दुःख की इतनी बड़ी वजह बन सकती है.
ये कोई हिमांशु से पूछे..हिमांशु बहुत  धीरे से शायद यही कहेंगे ., कि,बस कर पगले अब रुलाएगा क्या.?
हिमांशु इतने क्यूट हैं कि ,लगते  ही नहीं कि B.A.HONS कर रहे हैं.,और बहुत धीरे बोलते या कहिये कि....नहीं.! मत कहिये!.
सो इन्हें सुनने के लिए आपको अपने कानो को इनके मुँह के पास तक लाना पड़ता है क्यूँकि इनके शब्द आपके कानो तक पहुँचते-पहुँचते बीच में ही कहीं खो जाते हैं.
अब आते हैं सुधीर पर..ये बड़े वीर आदमी हैं.इन्हें मोमोज़ से कुछ खासी मोहब्बत है और आप भी करें इसके लिए आपको पूरा  आमंत्रण देते हैं.
हर बार..बार-बार.,. 
उन दिनों कुछ दिनों बाद सुधीर वहाँ से चले गए थे और इनके जाने के बाद मोमोज़ इन्हें बहुत याद करते थे और कहते थे कि,
बस तेरी याद  आती है..और याद आती है..,ये सुधीर की मोमोज़ पोएम है ..,उन्ही की स्वरचित..
अब आखिर में आते हैं ,

,. श्री श्री श्री १००८ कुँवर विकास प्रताप सिंह जी' पर..
ये जी' इसलिए भी है कि, आज कल तो बिस्किट  के भी आगे जी' लगाते हैं..पारले-जी.!.,तो ये तो फिर भी भाई है मेरा,.  कुँवर साहब ,
इनका कोई एक टाइटल नहीं है..जैसे इनके बड़े भईया वतन इन्हें मोगली कहते हैं,हम कुँवर साहब और जजौली नंबर-२ (ये इनके गाँव का नाम है जहाँ , से कभी प्रभु श्री राम चन्द्र जी गुज़रे थे ,सीता मैया के स्वयंवर में जाते हुए..,ऐसा ये बताते हैं.,संभव था कि भगवान श्री कृष्ण भी यहीं से गुज़रते लेकिन उन्हें स्वयंवर में इतनी श्रद्धा नहीं थी.),और न जाने क्या-क्या?.
असल में हमारे इन अनुज में एक ख़ूबी हो तो बताया भी जाय.
लेकिन ये तो  ,ख़ूबियों कि खान हैं.
सबसे प्रत्यक्ष खूबी ये है कि,ये थोड़ा हैण्डसम हैं.,और ये इन्हें भी पता है.
.,दूसरी ये कि,इनमे डर और संकोच नाम की किसी भी सोच का कोई अस्तित्व ही नहीं पाया जाता.
ये हँसने की कला में माहिर हैं.,कई कोटियों में हँसते हैं, और इनके पास हमेशा कुछ न कुछ लेटेस्ट" होता है.
इस लेटेस्ट में कुछ भी हो सकता है..कर्बला के सूफी-गीतों से लेकर रश्मिरथी के कर्ण महादानी तक का जिक्र..
हमारी समझ से अब बस कर देना चाहिए..इतनी फुटेज इन्हें मिल जाएगी तो ये हँस-हँस के सबको पागल कर देगा...नहीं तो कुँवर ये भी कह सकता है कि.,जब बालो में तेल लगवाना होता था ,.तब तो हम याद आते थे और मेरी ही तारीफ इस तरह की जा रही है...अच्छा है ..:-/
लेकिन असल तारीफ तो ये है कि इस लड़के को कभी भी कुछ बुरा ही नहीं लगता.
कितनी बार तो हमे गुस्सा आ गयी है, कि, इसे किसी ने कुछ कहा और ये उल्लुओं कि तरह हँस कर टाल गया..
ये इसकी सबसे बड़ी खूबी है और हमारी एक और अच्छी किस्मत है कि हमे ऐसा भाई मिला...लव यू भोलू ...!
अरे ,.! ,लव यू से याद आया ..,एक और भाई है मेरा....
जिसने हमें हमसे भी पहले लव यू कह कर...,हमे बहोत खुश कर दिया था...
आज भी.,जब  कभी-भी..,उससे बात होती है फ़ोन पर तो वो...हमसे जीत जाता है.,अक्सर ...और हमसे पहले ही हमे लव यू कह देता है...
.,पता है हमें..,अभी भी उसने हमे कह ही दिया होगा .,लव यू भईया.!
...मी टू बाबू..
लव यू....:ये दो शब्द हमे हमारे चाचू ने सिखलाये थे...कि,बेटा! जब भी कोई तुम्हे खुश कर दे...या अच्छा लगे तो उन्हें ये दो शब्द कह कर...तुम उन्हें भी स्पेशल फील करा सकते हो ....,और मैंने सबसे पहले चाचू को ही कहा था...लव यू चाचू .!और चाचू ने रिप्लाई किया था...मी टू बेटा.!
.,सो आय डू इट...ऑलवेज...
और सब..,पहले तो लव यू टू भईया ही कहते हैं...और फिर हम उन्हें बतलाते हैं...अरे नहीं यार .!!मी टू कहते हैं...अब,
 वैल..!अब सब इसी के तारीफ में लिख देंगे तो बाक़ी की तारीफ में क्या लिखेंगे जिनकी फिर कभी....





****                                                                       ०२




तो उस दिन हम अपने इन्ही भाइयों के साथ रात्रि-भोजन के पश्चात् वापस आ रहे थे.
(हमें व्हिसलिंग करनी अच्छी लगती है  अरे.!लड़कियों पर नहीं भई!
...बस यूँ  ही..कोई धुन पसंद हो तो कर लेते हैं कभी-कभी).
तो उस दिन फ्लोर पर वापस आते वक़्त हमने कोई धुन बजाई और बजाते-बजाते जैसे ही हम अपने फ्लोर पर  क़दम  रखते हैं..
आलोक भईया अपने रूम के बहार आकर सीढ़ियों की तरफ झांकते हुए कहते हैं,
..वाह ..क्लैप..!! आपने बजाई??
आप बजा रहे थे??
हम अपनी ऐसी unexpected तारीफ से सकते में आ गए.
हमने हाँ ,! में सिर  झुका कर भईया का एहतराम किया और अपना रूम खोलकर अन्दर आ गए.
,और सोचने लगे कि शायद ये आदमी सो रहा होगा और हमारी वजह से नींद टूटी होगी तो सोचा होगा इसने, कि कौन है यार..?.इतनी रात को रोमांटिक हो रहा है ?
और हमे देख कर सोचा होगा,अच्छा...?????ये लड़का है..चलो कोई नहीं., तारीफ कर देते हैं .,खुश हो जायेगा थोड़ा,.
ऐसे भी उदास ही रहता है. और ये सब सोचकर हमे इतनी हँसी आई कि,बस पूछिए मत.! और साथ साथ ये ख़याल , भी आया कि ,यार हमने कई दिन बजाई  है और शायद आज हद हो गयी तभी ये आदमी बहार आया होगा.और ईमानदारी से कहूँ , तो उसके बाद से हम ध्यान देने लगे कि व्हिसल तेज न बजायें...या बजायें ही न.

फिर उसके बाद एक दिन और कुछ हुआ था..लेकिन याद नहीं.
हाँ,! शायद भईया ने गुड मॉर्निंग कहा था ,और हम जवाब नहीं दे पाए थे.
तो हमे थोड़ा खराब भी लगा था कि., क्या सोचेगा ये आदमी कि हम इसे इग्नौर कर रहे हैं.
.,कुछ भी हो ये हमसे बड़े हैं तो हमे थोड़ा ख़याल  करना चाहिए..,
किसी से भूले से भी बेअदबी नहीं होनी चाहिये.
फिर किसी दिन भईया से दोपहर में मुलाकात हुई थी और भईया ने हमे चाय पर इन्वाइट किया था .,और हम लोगों की उस दिन घंटो बात हुई थी.
बातो बातो में भईया ने एक बार पूछा भी था कि, आप लोगो से बात क्यूँ नहीं करते,इतना खामोश  क्यूँ  रहते हैं.?
एक बार फिर, हमे इसी सवाल से रु-ब-रु होना पड़ा था.उस वक्त क्या कहा  था,? सही से याद भी नहीं है ,आ रहा और ,अब इतना निहायत भी नहीं है.
फिर भी कुछ ऐसा ही कहा था  .,यूँ ही भईया !...कोई खास वजह नहीं है.
,,.नहीं बोलते बनता सबसे.
 उसके बाद भईया से बातें भी होने लगीं और मुलाकातें  भी..
अब हम उन्हें जान भी गए और पहचान भी गए.अब वो गोर और चश्मे वाले शख्स से कहीं ज़्यादा हैं... 
फ़िलहाल भईया की  तारीफ में क्या कहूँ ?
...ये सही में बड़े आदमी हैं ..बहुत बड़े.., आप सोच रहे हैं होंगे कि, कैसे बड़े आदमी हैं?
 तो वो ऐसे कि भईया बड़े शुद्ध-ह्रदय व्यक्ति हैं.
आपसे बड़े प्यार से और पूरी-तरह मिलते हैं.
आपको हर तरह से ये एहसास दिलाने की कोशिश करते हैं कि, आप बहुत अच्छे व्यक्ति हैं और वो हमेशा आपके साथ हैं,.,.,., एंड सो मेनी थिंग्स...
,लेकिन सबसे बड़ी बात जो उनको बड़ा आदमी बनाने में मदद करती है वो है,,.,. . 
द वन ऐन ऑनली,,.. हमारी भाभीमाँ....भईया की अर्धांगिनी"
भाभीमाँ., से हमारी मुलाकात हुई हमारे दीक्षांत समारोह के दिन,
दिन रविवार...वक्त सुबह के नौ बजे लगभग या सुबह के आठ बजे होंगे.,
भाभीमाँ से मिलकर एक पल के लिए भी ये नहीं लगा था कि, हम उनसे पहली बार मिल रहे हैं.
ऐसे होते हैं  'कुछ लोग कि ,जो आपको पहली बार में ही पहचान लेते हैं.
भाभीमाँ .,के बारे में क्या लिखूँ..?
पहले तो यही बता दें कि उन्हें भाभीमाँ  कहते हैं?
भाभीमाँ .,के व्यक्तित्व से वात्सल्य बरसता है.
..,उनकी मीठी मुस्कान में अपनेपन कि पुरवा बहती है.
..,उनकी हिदायत में उनका मोह.,
..,और उनकी डपट में उनका नि:स्वार्थ स्नेह दिखता है.
.,अब और क्या कहें.?
हम उस इश्वर के शुक्रगुज़ार हैं कि, हमे हमेशा अच्छे और बहुत अच्छे लोग मिले हैं.
ऐसी ही, एक और भाभीमाँ भी हैं.,जो थाली में खाना परोसती हैं तो हमे पता चल ही जाता है..क्यूँकि.,रोटियों के नीचे चावल इतनी कारीगरी से रखे होते हैं.,कि वो आपको कुबेर का खजाना लगतें है.
जो कभी कम ही नहीं होता.
.,तो ऐसी हैं..,हमारी भाभीमाँ.
कुछ लोग होते हैं जो आपसे मिलते हैं तो आपको लगता है कि इनकी तारीफ न कीजिये वो तो सबकी ही की जाती है.,और 
वो तारीफ कहीं कम न पड़ जाए ..,और भाभी माँ ऐसे ही हैं.
सरल ,.शीतल.,सहज और सौम्य...बिलकुल किसी नीम के पेड़ की तरह जिसकी छाँव में शीतलता और स्वछता.., बिना मांगे ही मिलती है... 
यकीन मानिये...!
ये तो कुछ भी नहीं...भाभीमाँ इससे भी कहीं ...ज़्यादा अच्छी हैं..


****                                                                        ०३



एक चीज़ तो तय है,.
...हमने जहाँ से शुरू किया होता है वहाँ हमे लौटना ही पड़ता है.
तो आइये अब लौट आइये बनारस से वापस फिर इलाहाबाद...हमारी आज की  इस रात में जिसमे हमे नींद नहीं आ रही.
थोड़ा आप भी जगिये .,!हमारे साथ क्यूँकि., आप हमारे हैं...और आप को तो पता ही है कि, हम आपके हैं कौन..?
.,और सबसे अहम् बात अभी तो आपको वो वजह भी बतानी है न,?., जिसके चलते हमे आज नींद नहीं आ रही... 
तकरीबन दो घंटे हो चुके हैं...हमने सोने की कोशिश की...कुछ ना सोचने की ज़द्दोज़हद की ..पर नहीं दिमाग़ को तो जैसे इश्क़ हो गया है..
.,क़म्बखत को नींद ही नहीं आ रही..और इसके इश्क़ में..बेचैन हम हो जाते हैं,. 
ऐसे में यही लगता है कि...नींद भी किस्मत वालो को ही मिलती है...क्यूँकि हमारे चाचू तो कहते हैं कि बेटा..!.गर्मी के दिनों में आम और पुदीने की चटनी किस्मत वालो को ही मिलती है.. 
हमारी कॉफ़ी खत्म हो चुकी...
कॉफ़ी.”...कॉफ़ी से याद आया...भाभीमाँ को भी कॉफ़ी बहुत पसंद है. 
अरे यार !फिर हम भटक रहे..,और क्या-क्या बताने लग जा रहे आप लोगों को..मेरी इसी आदत से तंग आकर .,कल ऐसे ही बातो-बातों में किसी ने कहा कि...,
उफ़...!!! तुम बहुत बोलते हो..!.:-@
...एक हिसाब से देखा जाय तो सही ही था, और सुन के हमे गुस्सा भी आना चाहिए था...क्योंकि बात तो सही थी लेकिन पूरी तरह नहीं..
और क्यूँकि बात में तत्क्षणिक सत्यता थी ,,अतः हमे क्रोध भी आना चाहिए था..सामान्यतया..!.
लेकिन हमे हँसी आई और वो भी ऐसी हँसी कि क्या कहें.?
ये ठीक वैसा ही था जैसा आप अपने किसी दोस्त को जिसका दिल टाइप कुछ टूटा हो..(हालाँकि जिसने कहा उसका नहीं टूटा था..) आप ,उसे हँसाने की  कोशिश में खूब सारे जोक्स याद करके .,उसे सुनाये जा रहे हों और अंत में वो यह कह दे कि...”यार तू कभी सीरियस नहीं होता क्या?”
बस अब आप सोच लीजिये कि उस वक्त आपको क्या फील होगा..?
आपको गुस्सा नहीं आयेगा हम बता रहे हैं..
आपको हंसी आएगी अपने उस" दोस्त कि मासूमियत पर और अपनी बेवकूफी पर.,
और आप उससे बस ये कहना चाहेंगे कि...बस कर पगले रुलाएग क्या?
पता है,? उस पर हमारे एक और मित्र, बाबू चन्दन दा की याद आ गयी.... जो कभी ये कहते हुए हमारे पास आये थे कि
 “सर,! आप इतना शांत क्यूँ रहते हैं?
.,और हमे समझ में ही नहीं आया था कि, हम उन सज्जन कि उदारता का किन शब्दों में सत्कार करें.?
 बस इतना ही कह पाए थे कि., मित्र क्या कहें,?
आप सबकी बातो के संवर्ग में फिट हो जायें ऐसी बातों का संग्रह ही नहीं है हमारे पास..,और,
.., वो बेचारे ये कहते हुए चले गए थे कि,
 “नहीं .,!बोला कीजिये महाराज.!..चुप मत रहा कीजिये..!
और उनके जाने के बाद हमने कितनी ढेर सारी बातें की थी.,अपने फैकल्टी के बाहर बाऊ-साहब कि.,चाय-दुकान पर बैठ अपने हथेली में थामे चाय के उस प्याले से...उसमे ढली उस अदरकी खुशबु वाली चाय से..,उस चाय कि तरल ऊष्मा से निकलती बेकल वाष्प से...
...अभी एक साल से जादा का वक्त हुआ...बाऊ-साहब नहीं रहे...
लोगो से पता चला कि उन्हें ठंड लग गयी थी..
अब उनकी दुकान उनके बेटो ने सम्हाल रखी है...
..,कितनी..,?
...नहीं पता..!
खैर..! वो शुरूआती दौर था,जब हम बनारस को .,और बनारस हमको बस नाम से ही जानते थे..पर अब थोड़ा सुधार हुआ है...
अब बनारस पहुँचकर ये नहीं सोचना पड़ता कि, अरे यार कहाँ जायें..?
बल्कि ये सोचना पड़ता है कि,कहाँ न जायें..?
ओफ्फ़ोह..!कहाँ?से कहाँ? पहुँच जाते हैं.,हम..?
यही होता है हमारे साथ..,शायद आपके साथ भी होता हो..
अब ये और बात है कि.,आपने  कभी गौर भी किया हो या नहीं किया हो.,
कि जब दिल की फ़र्श गीली होती है तो ख़यालों के भागते पाँव अक्सर .,फिसल ही जाते हैं...


****                                                                      ०४


सोच रहे हैं कि., कल सुबह फिर माँ से बात कर लें..,
.., पर कहेंगे क्या???
ऊपर आसमानों के उस पार कहीं बैठे..,उस, इश्वर से., और,
दूसरी अपनी माँ से..
...यही दो शख्स तो हैं दुनिया में जिनसे हमे कुछ छुपाते नहीं बनता.और ऐसा कुछ होता भी नहीं हमारे पास कि.,मैय्या से छिपाने की जरूरत पड़े. 
हाँ .,!,कुछ चीज़ें छुपा लेते हैं.,जैसे महीने के ख़र्च में से अपने किसी अजीज़ के लिए खरीदे गए तोहफों का दाम और अपने लिखे कुछ शेर..
वो जिनमें कहीं अश्कों या दर्द के दीदार का जिक्र होता है.
,.क्योंकि हमें पता है..उनका दिल उदास हो जाता है...वो सोच में पड़ जाती हैं कि.,उनके कान्हा को किसी बात की तकलीफ तो नहीं??
फ़िलहाल.., उन्हें ऐसे सवालो में जज़्ब न होना पड़े.,इसकी हम पूरी कोशिश करतें हैं .
हमारे और आप जैसे कुछ लोगो को ख़ुदा ने., इस हुनर के साथ भेजा होता है कि,जिन्हें सिर्फ अपनी ही तक़लीफें नहीं औरों का दर्द भी शिद्दत से महसूस हो जाता  हैं.
ऐसे में हमारी लिखी कहानियाँ,कवितायेँ,नज़्में वगैरह., न सिर्फ हमारे एहसासों का अस्क दिखलाती हैं बल्कि., हर उस शख्स की परछायीं को नूमदार करती हैं.,जो हममें या हम जिनमें बसते हैं.
.,और मेरे ख़याल से..,हम सभी अपनी माँ में तो बसते ही हैं..
..पर माँ इतना नहीं सोचती है...उन्हें तो बस इससे फर्क पड़ता है कि उनके बेटे कि आँखों में आँसूं न दिखें.
देखिये सुबह क्या होता है..?
हर बार जब कुछ ऐसा होता है तो, माँ को एहसास हो जाता है.
लेकिन वो खुद नहीं पूंछती...,बस इंतज़ार करती हैं..,मेरी फ़ोन-कॉल का ..
जब तक हम कॉल करके उन्हें सब-कुछ बता नहीं देते.,उनका किसी भी काम में मन नहीं लगता...खासकर पूजा करने में..,और कई बार उन्हें ये भ्रम भी होता है कि शायद फोन की बेल बजी है..
........एक बार फिर से.,
.,खैर..!,
तकरीबन एक साल होने को हैं..,
हमारे एक छोटे भाई श्री सुशांत कुमार शर्मा ..,
जो कि एक उम्दा कवि-सह-गायक भी हैं ने,एक बात कही थी..कि भईया, दिल्ली उतनी अच्छी नहीं लगती,.,जितना वहाँ आप लोगो के साथ उस कैंपस (BHU) में लगता है.
..,और हमने उनसे सहमती जताते हुए कहा था,..बाबू कोई भी जगह वहाँ रहने वाले अच्छे लोगो से अच्छी लगती है..,अभी दिल्ली में आप कम पुराने हैं, ..वक्त बीतेगा,
.,लोग जुड़ेंगे आपसे और तब ,
..यही दिल्ली कल बहु-त दिली महसूस होगी...
कुछ ऐसा ही अभी., हमारे साथ है, ये' शहर इलाहाबाद है .


****                                                                      ०५


 इलाहाबाद"..,अब लोग अलाहाबाद कहना.,ज़्यादा मुनासिब समझते हैं..,लेकिन हम इलाहबाद ही कहेंगे...क्यूँकि शुरुआत में इसे इसी नाम से जानते और जनाते थे...
..,और आज बातें भी तो शुरुआत की ही हैं..,सो..,हम यही कहेंगे..,इलाहाबाद"
.,
आज से.,
सात-आठ या कहें कि.,दस साल पहले कभी ये नहीं सोचा था कि,कभी इस शहर में जाना भी होगा...
चलिए जाना तो फिर भी मुमकिन है....लेकिन इस तरह बैठ कर..अपने दिल के ज़ज्बातों को यूँ कभी., किसी ब्लॉग पर लिखूँगा.,ये तो बिलकुल ही....unexpected है...
इस शहर के नाम से ही हमे चिढ़ थी.
बचपन से...इतना न बखान सुन लिया था.
इस शहर के बारे में कि बस पूछिये ही मत....किसी भी पढ़ने वाले का ज़िक्र होता तो बस....इलाहाबाद"का ज़िक्र आना ही था.
..,जैसे सारी दुनियाँ के लोग बस इलाहाबाद में ही पढ़ते हों ...
.,क्यूँ ?..........ये नहीं पता था,,?
इलाहाबाद'.., के नाम से चिढ़ तो बहुत थी...पर पहली बार किसी के मुँह  से...इलाहाबाद का ज़िक्र.,किसी और सन्दर्भ में सुन कर..बहुत अच्छा लगा था.
..,और वो'..
 ...,प्रीती थी .,जिसके मुँह.,से पहली बार हमने इलाहाबाद का ज़िक्र सुना था.
.,और वो ज़िक्र पढ़ाई लिखायी के ज़िक्र से इतर .,था ..
..प्रीती".,
..हमारी बचपन की दोस्त...जिसे हम प्यार से मिस्टर-इण्डिया और कुल्फी कह कर बुलाया करते थे...
कुल्फी इसलिए क्यूँकि, उसे कुल्फी बहुत पसंद थी..,कुल्फी के अलावा उसे कुछ भी और इतना पसंद भी नहीं था...और मिस्टर-इण्डिया इसलिए कि,वो हमे बिना बताये गायब हो जाती थी...वैसे तब हमे गर बैटमैन के बारे में पता होता तो..,उसे बैटमैन ही बुलाते..वो ज्यादा सूट भी करता..लेकिन तब इतना पता भी नहीं था...
कभी भी कोई पूछता कि, प्रीती बेटे बताओ तुम्हे क्या पसंद है.?
तो बिना रुके तपाक से कहती...कुल्फी..!!
बड़ी होक तुम क्या बनोगी..?
.,फिर तपाक से कहती कुल्फीवाला.!
कुल्फी उसे इतनी पसंद थी...जितनी मधुमक्खियों को शहद और चींटियों को मिठाई..
उसी कुल्फी के मुँह से कभी सुना था...कि इलाहाबाद में उसकी नानी का घर है...
उस वक़्त सुनकर यही लगा था...कि,
..वाह..!,किसी की नानी का घर इलाहाबाद भी हो सकता है...?
हमारी दोस्ती फैज़ाबाद में तब हुई थी,.
और हम लोग सेकेण्ड स्टैण्डर्ड में थे..
प्रीती हमसे एक क्लास पीछे थी..
पर हम दोनों थे एक ही स्कूल में..
उन दिनों हम नाका-चुँगी शराब-गोदाम वाली गली में रहा करते थे अपने चाचू के पास..,ताकि हम पढ़ने जाँय...जो कि हमे दिली तौर पर नापसन्द था..
और अब तक हमने अपने न पढ़ने जाने की ज़िद के चलते घर से लेकर ननिहाल तक के लोगों कि नाक में दम कर रखा था...
और मेरे ख़याल से ये उस उम्र के लगभग बच्चों में पायी जाने वाली विशेषता है...जैसे मेरे बड़े भईया जिन्हें सब प्यार से हिटलर और हम प्यार से बिग बी बुलाते हैं,..में भी कुछ दिनों तक ये गुण रहे...फिलहाल भईया अब बड़े आदमी हैं..
पर कुछ एक ऐसे नहीं भी होते...जैसा की हमारी ये पहली दोस्त थी.
जो शुरू से ही काफी समझदर थी..
हालाँकि.., ये बात उसने हमे कभी बतायी तो नहीं थी...लेकिन ये हम ख़ुद से ही मान लेते हैं..क्यूँकि उसे कभी स्कूल जाते वक़्त रोते हुए नहीं देखा था.
और ना ही उसने कभी हमसे ये पूछा था..कि., कल स्कूल चलोगे तुम..?
जबकि हम उससे लगभग रोज़ ही पूंछते थे...और जब उसके जवाब हाँ में होते तो बस....दिल; गार्डन-गार्डन हो जाता था.
अब उस आलम को कैसे समझायें.,?
..रात को आठ बजे के लगभग जब सभी बच्चे नैतिक तौर पर एक अच्छे बच्चे होने का परिचय देते हुए...अपने-अपने घरों में जाने के लिए बाध्य होते थे...तो हमारा आख़िरी सवाल बस यही होता था..,.,
प्रीती.,!कल स्कूल चलोगी...न??

..रात को जब भी नींद टूटती थी...तो यही सोचकर फिर सोते थे...कि सुबह प्रीती भी तो चलेगी स्कूल.....हम अकेले थोड़े ही हैं इस सजा के लिए याफ्ता...
नहीं पता कि हमें स्कूल जाने को लेकर शुरू में इतनी ज्यादा तकलीफ़ क्यूँ होती थी...?
बस मेरा यही मन होता ,कि मेरे साथी मेरी क्लास में मेरा कोई अपना भी बैठे...जिसे हम जानते हों...बस.,!
कितनी बार...चाचू हमें स्कूल छोड़ने जाते तो हम उनको पकड़ कर रोने लगते कि,आप रुकिए...तभी हम बैठेंगे यहाँ..,
नहीं तो हम नहीं रुकेंगे..!
चाचू मानते भी बहुत थे..,आज भी मानते हैं..,इसलिए मेरी ख़ातिर.,क्या कुछ नहीं लाते थे ..,कि हम स्कूल जाएँ., बिना रोये-गाये...कभी टिफ़िन-बॉक्स कभी गन..,कभी पतंग..,कभी कुछ तो कभी कुछ...पर उन सबका असर बहोत देर तक नहीं रहता था.. 
चाची जाती तो.,साड़ी का पल्लू पकड़ कर लटक जाते कि, नहीं....हमको यहाँ अकेले छोड़ कर मत जाइए....ख़ुद तो आप चली जाती हैं...हम यहाँ अकेले कैसे रहें...वो भी दिन भर...!
लोग हमे खूब समझाते थे....कि पढोगे नहीं तो...बड़े आदमी कैसे बनोगे..अच्छे बच्चे रोते नहीं...
...ऑन...एन्ड.., सो ऑन


****                                                                           ०६


लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता था .,कि जब प्रीती का किया ये वादा...जितनी मासूमियत के साथ किया गया होता था..,उससे भी.,
कहीं ज्यादा मासूमियत के साथ टूट जाता था..
होता कुछ यूँ था...कि.,जब भी किसी दिन प्रीती को नींद आ रही होती.,.तो .,ये बिस्तर से उठने से इनकार कर देती थी...खासकर सर्दियों में...
...और क्यूँकि ये अपने पापा की  राजरानी थीं.....सो पापा अपनी लाडो को सोने देते थे..
...बस ...,और ,
..
.....और हम इस बात से अन्जान ...अपनी टिफ़िन बॉक्स बैग में रखते हुए...ये सोच रहे होते थे कि.,प्रीती भी बस निकलने ही वाली होगी..,और भागते हुए हम अपनी बिल्डिंग के एंट्री-गेट पर पहुँचते थे...
...यहाँ से मेरे दिल की धड़कने थोड़ी कम तो थोड़ी मद्धम होना शुरू होती थी...
..घड़ी तो होती नहीं थी ...लेकिन स्कूल पास ही में था ..ऐसे में उसकी ...प्रेयर बेल सुनाई पड़ती थी ..,मेरे कान उस उस बेल को...सुनने के लिए अलर्ट रहते और मेरी नज़रें प्रीती के कमरे के दरवाज़े की तरफ.....हर सेकेण्ड पर दस्तक देती रहती..
...सेकेण्ड-दर-सेकेण्ड मेरा दिल बैठता जाता ..,और फिर अचानक से स्कूल की बेल...टन-टन-टन-टन-टन-टन-टन-टन...बजती,
..,और मेरी....नज़रों को धुधला होने में..,एक पल से भी कम का वक़्त लगता..
...अब हम बिना कुछ सोचे-समझे...स्कूल की ओर दौड़ना शुरू करते
...स्कूल की तरफ दौड़ते वक़्त..,
कितनी बार मन में होता ..,कि ये क़दम रुकें ही न...!
.,और हम भागते हुए अपने घर पहुँच जाएँ..,
..,सीधे उस जगह पर पहुँच जाएँ.., जहाँ ...माँ बैठी हों...
..,और उनकी गोद में कहीं गुम हो जाएँ...
लेकिन ..,क़दमों के हिसाब से ख्व़ाब कुछ ज्यादाः ही बड़े थे ..
..सो ख्व़ाब ही रह जाते थे .....,कई-बार....बार-बार...
स्कूल पहुँच कर प्रेयर की लाइन में खड़े होने तक तो.,खुद को नहीं पता कैसे रोके रख पाते थे...,
.,लेकिन जैसे ही प्रेयर शुरू होती .,
.,मेरे होठों पर...एक ही नाम आता..,
,माँ.!..
, माँ..!
,  माँ..!.,
जाने कितनी बार..,हम धीरे-धीरे यही नाम लेते रहते थे...
..बहोत धीरे ...इतनी कि, कोई सुन न ले ..,
..,कि, कहीं कोई रो रहा है....!
..,कोई देख न ले कि, यही तो रो रहा है..,!
..,कोई पूँछ  न ले कि, क्यूँ रो रहे हो.,?
.,और मैं बताउँगा क्या..,?
..,ये कि.,माँ की याद आ रही है !
.,फिर लोग पूँछेगे.,कि क्यूँ आ रही है..?
.,और मैं.,कुछ भी नहीं बता पाऊँगा कि., क्यूँ आ रही है..?
..,और उस वक़्त बस यही सवाल ज़हन में आता था कि.,,
...माँ की याद आने के लिए भी क्या कोई वज़ह होनी ज़रूरी है....?
...अरे मेरी माँ है...मैं जब चाहे याद करूँ.,!
..,जब चाहे याद न करूँ.,!
,..किसीको इससे क्या ?
....प्रेयर होती रहती .,हम रोते रहते ..
..प्रेयर ख़तम होती हम चुप हो जाते...
चुप''
एक दम 'चुप,
...किसी से बोलने का भी मन नहीं होता था ...और मन ही में यह भी कहते थे कि.,अब कुल्फी से कभी बात नहीं करेंगे ..!
..पर अभी भी इंतज़ार होता था..उसका ..,
क्यूँकि कुछ बच्चे देर से...आते थे...,इन्टरवल में
हर पल मेरा ध्यान स्कूल के गेट पर ही लगा होता था....पता नहीं...,ऐसी कौन सी मुश्किल हल हो जाती थी ...प्रीती के स्कूल में होने से...
...और इसी इंतज़ार में....स्कूल की छुट्टी की बेल भी बज जाती थी ....
....और हम भी सबकी ही तरह घर वापस आ जाते थे....
...घर आने पर भी मेरे मन में यही बात होती थी..,कि,
..,अब कुल्फी से नहीं बोलेंगे...!
.,पर ऐसा हम कर नहीं पाते थे.,
.,या यूँ कहिये रूठना हमें समझ में नहीं आता..
,हाँ जो गुस्सा लगी होती थी ..,उसे दिखने का मेरा पूरा मन होता था... 
५;३० या ६;३० हम लोगों के खेलने का टाइम हुआ करता था,.
.,इसी दौरान हमारी प्रीती से फिर मुलाक़ात होती थी.
ये दौड़-कर मेरे पास आती और पूँछती.,
.,अमन तुम स्कूल गए थे ?
...प्रीती के इस सवाल के जवाब में हम बस यही कह पाते थे..
..,.हम्म .!
प्रीती फिर कहती ...हम न सो गए थे .!तो नहीं आये !
ये सुन कर तो हमे बहुत तेज़ गुस्सा आती.,और हम कह देते थे...तो हम क्या करें ?
ये सुन कर प्रीती पूँछती थी ...तुम मेरी तरफ नहीं हो अम्मू?
अब...हमें कुछ भी कहते नहीं बनता था....क्यूँकि,
.,दिमाग से तो उसकी तरफ अभी नहीं होते थे ..
.,लेकिन दिल से .,तो उसी की तरफ होते थे .,.
और हम बस यही कहते.,-हैं तो !
...इतना कह कर हम अब गेट के बहार बरगद वाले पेड़ के पास आ जाते.,और उसकी जड़ों पर बैठ कर कुछ-कुछ करने लगते.
प्रीती भी मेरे पीछे पीछे वहीँ आ चुकी होती..थोड़ी देर चुप रहती फिर कहती...,तो चलो फिर कहानी सुनाओ.!
...हम प्रीती को अक्सर कोई कहानी सुनाया करते थे.
.नहीं पता कि कैसी  होती थीं, वो कहानियाँ....लेकिन जैसी भी होती थीं उसे बेहद पसंद थीं.. .
थोड़ी देर तो हम न-नुकुर करते पर आखिर में मान ही जाते थे.
.,वो क्या है न..,कि?
..,मेरा तो दिल ही कुछ ऐसा है,.!(शोले में जय का डायलोग)
:-)
जब तक हम दोनों साथ में होते थे....हमें कुछ भी याद नहीं होता था..,जैसे अभी होमवर्क करना है.,टाईमटेबल से बुक्स रि-अरेंज करनी हैं..,etc...etc
ये एक डेढ़ घंटे तो बस सांस लेने में ही गुज़र जाते ..
.....फिर हमारी मुलाक़ात का वक़्त ख़त्म होता..
और हम कल के लिए एक वादे के साथ,
. ...अपने-अपने हिस्से में लौट आते थे....



****                                                                       ०७ 


कुछ ऐसा ही होता था ..हम दो दोस्तों के बीच..हमें पहली बार अमूल की मिल्कीबार-चौकलेट...,प्रीती ने ही खिलाई थी.
उसके मामा जो दिल्ली से आये थे.., उन्होंने दी थी.
.,और प्रीती रात को ही हमें चौकलेट देने के लिए..,हमें,बुलाती हुई आई थी...मन्नु ..!.,मन्नू ..!
,.,
प्रीती को गाँव बहुत पसंद थे.,और तो और,हमारी दोस्ती के इतनी गहरी होने के पीछे बाक़ी की वजहों में से एक वजह, ये भी थी कि हम ...गाँव से गए थे ..,फैज़ाबाद..
.,और उसे गाँव जाने का मौका सिर्फ़ गर्मी की छुट्टियों में ही मिल पता था.
प्रीती हमारी कहाँनियों में गाँव देखा करती थी.
..,आँखें उसकी होती थी.,और उन्हें नूर हम दिया करते थे..
..,पंख उसके होते थे.,और उनमें परवाज़ हम दिया करते थे..
और हम समझते हैं कि,..,इसमें कुल्फ़ी का ही हुनर था ...कि,वो हमारी नज़रों को अपनापाती थी.,क्यूँकि,इस दुनिया में कई मुश्किल बातों में से एक मुश्किल बात है.,किसी और का नज़रिया समझ पाना.
किसी और की बातों को वैसे ही बूझ पाना ..,जैसे वो बता रहा हो,और प्रीती के लिए ये सब बहुत आसान था.अब आँखे बंद करके आप अकेले चलेंगे तो  मुमकिन है..,आपको थोड़ी मुश्किल हो,लेकिन किसी के साथ उसके कंधे पर हाथ रखे-आँखें मीचे चलना ...काफी आसान होता है..
लेकिन ये सब तभी मुमकिन हो पता है..जब..,ख़ुद से भी ज़्यादा: उस' शख्स पर यकीन हो ..,जिसके कन्धों का आप सहारा लेने जा रहे हों..
.,और हम दोनों .,को.,एक दूसरे पर यक़ीन था ..,ऐसा ही यक़ीन..
अब ये बात और है कि,उस वक़्त ये नहीं पता था कि.,इसी एहसास को यक़ीन कहते हैं.
लेकिन आज बखूबी समझ में आता है.,की जब आपको सोचना न पड़े तो ..,समझ लीजे कि.,,आपको यक़ीन...है.
कॉलोनी के सारे बच्चे जब क्रिकेट.,या फिर आई-स्पाई और पकड़म-पकड़ाई खेल रहे होते थे.
हम दोनों-जन अपनी बिल्डिंग के ऊपर वाले फ्लोर पर शिवम् के कमरे के बगल वाले लम्बे गलियारे में.,जो गर्मियों में भी काफी ठण्डा हुआ करता था.,या हो सकता है तब हम लग छोटे थे इसलिए गर्मी उतनी ज़्यादा समझ में नहीं आती रही हो....,उसकी फ़र्श पर लेटे दीवार पर पैरों को ऊपर किये हुए ...
कोई कहानी जी रहे होते...
उन दिनों कभी कहीं क़श्मीर का ज़िक्र सुना था..,और ये भी के वहाँ बर्फ़ भी गिरती है ...वो जन्नत है...दूसरी''
.,तो हम अपनी कहाँनियों में क़श्मीर भी जाया करते थे..लेकिन कभी देखा तो था नहीं (आज भी कहाँ देखा है.?)..,सो उसमें भी गाँव की ही बातें हुआ करती थीं..और उस गाँव में बर्फ़ भी गिरती थी...,जो उत्तर प्रदेश के ही किसी गाँव सा दिखता था.
..ऐसा नहीं है कि हमे खेल -खेलना पसंद नहीं था ..या बाक़ी के खेलों में  हमारी दिलचस्पी नहीं थी..,नहीं.,!ऐसा कुछ नहीं था..
बल्कि वजह ये थी कि,हम बच्चा कम्युनिटी से बहिष्कृत थे..,और उसकी वजह ये थी..,कि.,
हम दोनों जब आई-स्पाई खेल रहे होते तो,प्रीती हमें  कभी भी सबसे पहले नहीं बोलती थी ...ताकि हम चोर न बनें..और न ही हम उसे...बोलते थे..
ये कोई प्लानिंग नहीं थी हमारी.,बस ये हो गया था...
., रही पकड़म-पकड़ाई की बात तो उसका भी यही हाल था..,हमें नहीं अच्छा लगता था ..,कि हमारी दोस्त ..,हमसे बचने के लिए भागे-दौड़े.,और इसमें डर भी तो था ..,कहीं गिर जाती वो तो.?
...,क्यूँकि.,एक बार ..,प्रीती छत पर से नीचे आ रही थी..और बंदरों के डर से तेज़ भागने के चक्कर में ...,सीढ़ियों से गिर पड़ी थी...सिर में चोट आई थी..,और उसे पट्टी बंधी थी.
वो वैसे.,जैसे जीत फिल्म में सनी देओल ने बाँध रखी होती है...अपने माथे पर.,
और हमे भी वैसे बाँधने का बड़ा मन होता था...लेकिन कभी बाँध नहीं पाए....और प्रीती को वो पट्टी वैसी बंधी देख हमने एक दिन कहा भी था..उससे,.ये पट्टी हमे बहोत अच्छी लगती है कुल्फ़ी.!
,,, तुम तो सनी देओल बन गयी..!
और वो हँसने लगी थी....लेकिन दो-तीन दिन बाद जब,प्रीती के माथे पर से वो पट्टी हटी और हमने उसके माथे पर दाहिनी तरफ चोट का निशान देखा तो...बहुत बुरा लगा था हमें...और हमने उसकी चोट पर काफी देर तक
धीरे-धीरे फूँक मारी थी...
और,
फिर प्रीती ने अपने माथे को छूते हुए पूँछा था...,ठीक हो गया क्या?
...,और जैसे ही चोट पर उंगलियाँ पहुँची तो चिहुक उट्ठी थी...
...अरे ये तो अभी भी है...कहते हुए,,!
और हमने कहा था-हाँ..!ऐसे नहीं ठीक होगा.....जब एक लाख बार फूंकेंगे तब ठीक होगा....
......और प्रीती ने कहा था-ह्म्म्म..!सन्डे को फूँकना...!
..,
... गोया ऐसा ही होता है बचपन.,,
,.,लाखों और करोंड़ों की गिनतियाँ तो हम फूँक में गिन जाया करते थे....
...हाथ भी तो टूटा था उसका ....उसके कई होम-वर्क हमने पूरे कराये थे.,कुछ दिन,.और घुटने भी तो छिल गए थे ...उसके.
.,हम बहोत उदास हुए थे...,उन दिनों..!
क्यूँकि उसे चोट लगी थी,सिर्फ इसलिए नहीं ..,क्यूँकि अब हमें स्कूल भी अकेले ही जाना पड़ता था.
कुल्फी के छिल गए घुटनों पर हमें नेल-पोलिश लगाने का बहुत मन था....
क्यूँकि.,इससे ज़ख़्म जल्दी सूख जाते हैं ..,और ये वाटर-प्रुफ भी तो होती है...ये बात हमें मञ्जरी दी ने बताई थी..,हमारे घुटनों पर नेल-पोलिश लगाते हुए .,तब जब एक दिन छत पर खेलते हुए ..,हमारे घुटने छिल गए थे..
अभी नहीं पता कि दी' कहाँ हैं.?
,,,ढूँढने की कोशिश भी की...पर नहीं मिलीं...और अब तो हम उन्हें याद भी नहीं होंगे.....क्यूँकि मरहम तो उन्होंने हमें लगाया था...हमनें उन्हें नहीं....

,.सो यही वजह थी कि हमें..,
सबने अपने साथ खेल में शामिल करने से मना कर दिया था ...


****                                                                        ०८ 


हर साल गर्मी की छुट्टियाँ हम अपने-अपने गाँव में बिताया करते थे.
१५-२० मई के गए हम लोग १५-२०जुलाई तक वापस आते थे..फैजाबाद,
अपनी वार्षिक परीक्षाएँ ख़त्म होने के बाद से हम बेसब्री से घर से बाबा के आने का इंतज़ार करते थे कि.,
कब वो आयें कोई भी आये ...और हम घर चलें...
...माँ के पास,.!
परीक्षाएँ खतम होने के बाद माँ की और ज़्यादा: याद आने लगती थी...
...उस साल भी वैसा ही हुआ था...हमें लेने बाबा ही आये थे ...और हम बहोत ख़ुशी से घर गए थे ...बाबा के साथ...
जाते वक़्त हम ज़ाहिर सी बात है बेहद खुश होते थे...,सो इस ख़ुशी में कुल्फ़ी को शामिल न करते ऐसा कैसे?!हो सकता था ..?
प्रीती से मिल कर बताया था...कि .,पता है?बाबा आये हैं.?
अब हम कल घर जा रहें हैं...माँ के पास...,और कुल्फ़ी ने बस मेरी ही तरह मुस्कुराते हुए कहा था-हाँ.!
और फिर जाते वक़्त भी मिलने गए थे उससे'..जाते वक़्त उसने कहा था ...ठीक है !जल्दी से आ जाना फिर कहानी सुनेंगे..!
और हम बस सर हिलाया था....ह्म्म्म ! कहते हुए ...
,.,.
घर जाते वक़्त रास्ते भर ...दुकानों के शाइनबोर्ड पढ़ते जाते थे..ताकि जगह का नाम पढ़ सकें और ये जान सकें कि.,अभी और कितनी दूर जाना है ?
.,अच्छा...अभी ये जगह है?हाँ!अभी तो दूर है ...
हाँ !यहाँ पहुँच गए..,अब बस थोड़ी देर और,
एक जगह रास्ते में एक मूँगफलीवाले बस में आते थे,आज इतने साल बीत गए.,आज भी वो .,वहीँ से बस में चढ़ते हैं..,और उसी आवाज़ में मूँगफली लेने की गुज़ारिश करते हैं.,
और बाज़ार के आखिर में .,बस ड्राईवर के बस थोड़ी सी धीमी करने पर चलती हुई बस से दौड़ते हुए उतर जातें हैं ....उनकी उम्र तब भी उतनी ही लगती थी...और आज भी उतनी ही लगती है...
फिर एक दो घन्टे बाद हम अपने ब्लाक पहुँच ही जाते थे...,और यहाँ पहुँच कर बस से नीचे उतर कर यही लगता कि,
अब तो,पूरी दुनिया ही मेरे क़दमों में है..
..एक-एक दूकान .,एक-क चहरे .,जो हमें नहीं भी पहचानते थे ...सभी हमें  बहुत अपने से लगते ..,बहुत.,बहुत.,.बहुत.,बहुत-अपने,
.,और यहाँ से बाबा की साइकिल पर आगे बैठ कर ..,या अँकल होते तो उनकी स्कूटर एल.एम.एल वेस्पा,पर आगे खड़े होकर ...हम घर पहुँचते ....
...द्वार से घर के सदर मुहारे से भीतर चल कर जब,घर के आँगन में  पहुँचते..,तो,ऐसा लगता कि,मानो हम किसी रियासत के शहज़ादे हों..,और महीनो बाद ..,किसी जंग में फ़तह करके,,लौटे हों..
.,और, था भी हमारी ख़ातिर,घर से इतनी दूर रहना.,
..रोज़ किसी जंग में लड़ने सरीखा...
....
.,खैर .,!
.,हर पुत्र अपनी माँ के लिए ...एक शहज़ादा ही होता है,.
सो हम' भी थे.,,
,. अपनी माँ के लिए ...उनके शहज़ादे..!
,उनके कान्हा..
,उनके लल्ला..,
.,और उनके सब कुछ,..?
माँ जहाँ कहीं भी होतीं ..,हमारी आवाज़ सुन कर भागते हुए आतीं.
,और उन्हें देख हम दौड़ते हुए ...उनकी गोद में खो जाते..
माँ हमें अपने सीने से लगाए अपनी आँखों को.,
,गीला करतीं रहतीं,.करतीं रहतीं.,करतीं रहतीं...
..फिर हाथों से हमारी पेशानी पर से.,बालों को ऊपर करते हुए...मेरे चेहरे पर कहीं एक जगह न टिक पाती नज़रों को.,
.,कहीं टिकाने की कोशिश करते हुए..,अपने लरज़ते होठों से रुँधे हुए गले से.,काँपती सी आवाज़ में कहतीं.,.कान्हा.,! आ गए ..,?
इस बीच ...मईया की आँखों के कुछ आँसू उनके इस कान्हा की आँखों में भी उतर चुके होते.,क्यूँकि हमारी न सिर्फ नब्ज़ एक थी..,हम तो उनकी नाभि से भी जुड़े हुए थे..,ऐसे में हम बस, हाँ.! ही कह पाते थे ....
तब मैया के इस सवाल का माकूल-मतलब समझ नहीं आता था..,.,पर आज समझ आता है..,कि, माँ सामने देख कर भी क्यूँ  ऐसा पूँछती हैं.,कि,
"आ गए ?...
..और समझ में ये आता है .,कि, माँ ही नहीं .,हर वो शख्स़ जो आपके आने का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से कर रहा हो .,आपको सामने देखकर.,ख़ुद को तसल्ली देने के लिये.,एक बार पूँछ ही लेता है कि.,आ गए .?
..ये एक सबूत होता है आपके लिये.,कि,
 कोई' आपका मुन्तज़िर था या नहीं.,?...और फिर.,वो तो .,,,,,,,,माँ" है....माँ" 
फिर मईया खुद भी चुप हो जातीं और हमें  भी .,चुप करा देतीं थीं.,मेरे हाँथ मुँह धुलातीं.,अपने हाथों से मेरा चेहरा पोंछतीं...और बस हम खुश हो जाते ...
आज भी जब हम घर जाते हैं...और अगर माँ .,नल के पास होती हैं.,तो वही" हमारे हाँथ-मुँह धुलातीं हैं और ...,फिर हाँथ-मुँह पोंछतीं भी ख़ुद ही हैं.
..और हम बचपन वाले....मनु बन जाते हैं ....थोड़ी देर के लिए....
..,पर एक बात आज भी नहीं बदली....और वो है ...मेरा दूध के ग्लास से दूर भागना ..
 ...जब छोटे थे तो.,पूरा गाँव भागते थे ताकि., दूध न पीना पड़े...और माँ
क्या-क्या जतन करती थीं, मेरी ख़ातिर...,सोच कर हँसी आती है.,अब.,
और आज भी मईया से जब भी कुछ खाने-पीने को माँगों तो वो कहेंगी .,,
..,बेटा दो घूँट दूध पि लो., बस दो घूँट..!
..और हम फिर कहेंगे ,
....अरे मईया....नहीं..!कुछ और.,
.....लेकिन ग़र वो' ला के दे देतीं हैं., तो हम पी लेते हैं..
पर पता नहीं क्यूँ.,? अपने हाथ से दूध लेकर पीना बिलकुल अच्छा नहीं लगता.
..और दूध-रोटी खाना....तो माँ या फिर छोटी दी के ही हाथ से खा सकते हैं ...नहीं तो..,असम्भव.,!.,हो ही नहीं सकता....
क्यूँकि ...हमें  लगता है कि., ये ही तो दो-चार चीज़ें हैं जो हमें...आज भी आसानी से मिल सकती हैं.,
.,जो कभी हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा थी.
,.खिलौने अब खेलते नहीं बनेगा....और भी कई चीज़ें नहीं हो पाएँगी.
.,पर ये चीज़ें हो सकती हैं.....और हम हमेशा इन्हें वैसे ही महसूस करना चाहते हैं.,जैसे ये थीं ., कभी हमारे लिए....और ये हो भी सकता है...क्यूँकि दुनिया में कोई चीज़ ग़र ऐसी है..,जो कभी बदल ही नहीं सकती.,
तो वो इकलौती चीज़ है...माँ और माँ की ममता.....
...अब आगे ...
..
...
....ये ख़ुशी बस...दो महीने खूब रंग में रह्रती.
दो महीने बस" क्यूँ कह रहा हूँ...क्यूँकि ख़ुशी की ये फ़ितरत होती है...वो आपको जल्द से जल्द छोड़कर किसी और के पास भी जाना चाहती है...और ग़म., थोड़े जिद्दी टाइप्स होते हैं ...जाते ही नहीं..,
.,और हमारी फैज़ाबाद वापसी के दिन ....जैसे-जैसे क़रीब आते.,
ये रंग धीरे-धीरे ...उड़ने लगते ..
.,लगता..,जैसे बहार अभी-अभी आयी ही हो .,और बस बीत गयी हो..
इतनी जल्दी के पत्तों का आख़िरी छोर इधर पूरी तरह धानी हुआ ही था.,कि..,दूसरा छोर भूरा होना भी शुरू हो गया....
जाने के वक़्त भी वैसा ही दृश्य होता था ..,जैसा आने के वक़्त..,बदलाव सिर्फ़ इतना होता था.,
.,उस वक़्त आँसू ठण्ढे होते थे ..,और अब गर्म...
.,तब हमारे क़दम आँगन में आ रहे होते थे..,और अब आँगन से जा रहे होते थे...
.,तब माँ..मेरे सामने रो रही होती थी ...और अब छत पर अकेले ...
तब कोई ये नहीं देखता था कि..,हम क्या नहीं लाये थे.?,
.,लेकिन अब सब यही देख रहे होते थे..,कि, हमारा कुछ छूट तो नहीं रहा....,कपडे..,किताबें..कुछ भी ,
सब बार बार पूछते....सब कुछ रख लिया न सही से...?
...और हम अपना बैग टटोलते हुए कहते.थे,, हाँ! सब रख लिया...!
...पर हर बार....माँ"
., वहीँ घर पर ही छूट जाती थी....
.,क्या करते छोड़ना ही था..
...वह पूरा दिन ...दो जानों के लिए पहाड़ जैसा होता था..बीतने को ही नहीं आता था ...,
.,एक हमारी माँ ...और दूसरे हम..
...माँ घर की छत...,या फिर घर के पिछले हिस्से में बनी., खिड़की में बैठी सिसकियाँ ले रहीं होतीं...
,और वहाँ पूरे रस्ते...हमारे आँसू .,हमारी आँखों को गर्म.,और गालों पर गीली लकीरें खींच रहे होते...


****                                                                      ०९ 


फैज़ाबाद वापस जाकर ...बस प्रीती ही हमारी आँखों की मंजिल और रास्ता दोनों होती थी..
उस बार भी हम उसी को ढूँढ रहे थे ...
कमरे के दरवाज़े पर  ताला लटका हुआ देखा .,,जो की दूर से ही दिख रहा था..
ये थोड़ा अजीब था..,हमारे लिए ,लेकिन ठीक था..
हर बार तो हम देर से आते थे और प्रीती होती थी हमारे लिए वहाँ .,लेकिन इस बार वो नहीं थी.,इसमें भी हमने दिल को थोड़ी तसल्ली दी थी कि,चलो बहुत अच्छा है..,इस बार हम आ गए हैं पहले .,सो.,हम जीत गए हैं.
आने दो कुल्फ़ी को .,बहुत ताने मरती हैं न कि, तुम तो हमेशा देर से आते हो...,पूँछेंगे.,इस बार क्या हुआ..?
इसके बाद...,पहला दिन..-...बीत गया .
.,फिर दूसरा दिन-अभी तो सात ही बजे हैं ९ बजे तक आ जाएगी ...,
.,तीसरा दिन-आज भी नहीं आई...,कोई नहीं कल तो पक्का आ जाएगी कल तो सन्डे भी है सब सन्डे को ही तो आते हैं .,,हाँ.!कल पक्का आ जाएगी ..!
.,
.,और फिर पूरे चार दिन गुज़र गए .......,,,,
..,
..,नहीं आई प्रीती...
.,पर अभी भी उम्मीद बाक़ी थी ..,नहीं पता था क्यूँ ..,पर थी बाक़ी 

...,
...पाँचवे दिन शाम को प्रीती के दरवाज़े के बहार सीढ़ियों पर बैठे हम...,अपनी इकलौती दोस्त के लौट आने की प्रार्थना कर रहे थे ..,भगवान् से..,उसे हनुमान जी बहुत पसंद थे...,सो हम उन्हीं से कर रहे थे ...कि शायद वो प्रीती को जल्दी भेज दें....और भी जितने भगवान याद आये होंगे सबसे किया था....
...,तभी हमारी नज़र प्रीती के दरवाज़े की कुण्डी पर लगे ताले पर पड़ी ..,हम हक्क़ हो गए., ..,ये तो वो ताला नही है., जो आंटी लगा के जाती थीं.,ये तो दूसरा है.,ये किसने लगा दिया ?
फिर ध्यान आया..,ये ताला तो मालिक-मकान लगाते हैं .,उन कमरों में जो खाली कर दिए जाते हैं.,,हमारी बेचैनी अब और बढ़ गयी .,हमे रोना सा आ रहा था ..!
....पर अभी भी यही मन हो रहा था कि., नहीं हम गलत हो सकते हैं.
डरी-बेचैन नज़रों से हमने खिड़की के दरीचों से झाँक कर कमरे के अन्दर देखा ..,तो ..,पूरा कमरा खली पड़ा था....!
..,पूरा
...पूरा का पूरा कमरा...
.,वो जगह भी जहाँ हम और प्रीती ने,
..,चटाई पर बैठ कर कभी साथ-साथ चाय पी थी...कटोरी में...
...अब कुछ ऐसा नहीं था..,जो हम ये उम्मीद रखते कि..
.,नहीं.,!प्रीती हो सकता है कि, कल आये ...
...अब...जा चुकी थी वो..
वो कमरा छोड़कर..
वो वो मुहल्ला छोड़कर..
और तो और..,हमें".,अपने मन्नू को., भी छोड़कर...
...कितनी देर वहाँ बैठे रहे....उन सीढ़ियों पर...याद नहीं..
..नहीं याद कि, कितने आँसू बहाए थे....किसी मासूम-मुन्तज़िर ने...
...हाँ!.,कई दिनों तक.,
,उन आँसुओं की सीलन सीने में महसूस होती रही थी.
कोई ज़ोर से आवाज़ देकर बुलाता तो...उतनी ही ज़ोर से जवाब देने का मन नहीं होता....था...,डर लगता कि..,कहीं रो न पड़ें हम...
मुहल्ले ..,के मुकेश.,दुर्गेश .,रिंकल  .,जब भी आवाज़ देते तो.,,इक-बारगी दिल जब तब हक्क़ से हो जाता था.....,लगता के कुल्फ़ी ने आवाज़ दी...,.क्या?
पर नहीं वो कहाँ से आवाज़ देगी ?
कहाँ चली गयी थी .,कुल्फ़ी?
.,क्यूँ चली गयी थी ?
कुछ भी तो नहीं पता था हमे.,
.,और किसी को इतनी भी कौन सी ज़रूरत थी जो वो हमें ये बता देता कि...प्रीती यहाँ गयी है....
और तब हममें ये पूछने की हिम्मत भी तो नहीं थी.,कि हम ही किसी से पूँछ लेते..,
...फिर धीर-धीरे ...जो चीज़ें जैसी होनी चाहिए थीं वो., वैसी हो गयीं ..
..कुछ एक चीज़ों को छोड़कर..,जैसे .,
.,अब हमने कहाँनियाँ बुननी छोड़ दी थी.,
,.अब हमें कॉलोनी की बच्चा-पार्टी में फिर से शामिल कर लिया गया था,.ये और बात है कि.,अब हम खेलते कम ही थे..
,.अब हम चोट लगने पर चोटों पर नेल-पोलिश नहीं लगाते थे ...
,.और न ही अब हम ऊपर छत के गलियारे में जाते थे...
..,और अब हम ...,कुल्फी' भी नहीं खाते थे...


****                                                                         १०   


प्रीती के जाने के बाद हम भी वहाँ बस उसी साल और रहे., फिर चाचू का तबादला हमारे ही गृह जिले के पास एक क़स्बे में हो गया..,और हम घर आ गए.,
अपने गाँव,.,जो प्रीती को बहुत पसंद था ..बहुत ही नहीं बल्कि कहें
कि, बहुत से भी ज्यादा ..
..हमारे पास प्रीती की दी हुई उसकी निशानी के तौर पर बस दो चीज़ें थी.,पहली एक की-रिंग .,जिसमे एक प्यारी सी फूलों की टोकरी बनी थी.,कुछ फूल भी रखे थे जिसमे .,और टोकरी में छोटी-छोटी सुन्दर सी घंटियाँ टंगी हुई थी.,सिल्वर-कलर की थी ये की-रिंग .
जिसे वो तब लायी थी, जब वो वैष्णो-देवी गयी थी दर्शन के लिए.,और दूसरी एक डांसिंग बॉल.,रेड कलर की..
..,हमने दोनों चीज़ों की हिफाज़त बड़ी शिद्दत और संजीदगी से की है.,ऐसा हमारा  विश्वास था .,,लेकिन शायद नहीं,
.,,साल २००५ में वो डांसिंग-बॉल हमसे गुम हो गयी..
लखनऊ से फैज़ाबाद जाते वक़्त कहीं बस में ही गिर गयी ..
और चार दिन पहले पता चला कि, वो की-रिंग भी कहीं गुम हो गयी हमसे...
..,
....
..चार दिन पहले जन्म-दिन था प्रीती का ..,अब वो तो थी नहीं.,तो उसकी दी हुई की-रिंग ही हमारे लिए प्रीती थी...
..हर साल बस इसी दिन उस की-रिंग को देखकर ...उसे विश करते थे ...
..,

..हैप्पी बर्थ -डे .,कुल्फी..!!



.,पर इस बार जब अपनी छोटी वाली सफारी खोली..,
जिसमें ऐसी ही बेश्कीमती चीज़ें हमने बड़े नाजों से रखीं हैं.
जिसमे कुछ राखियाँ .,कुछ ट्रेन-टिकट्स..कुछ और कुछ और शामिल हैं..
...तो वो की-रिंग नहीं मिली ...
....एक पल के लिए दिमाग़ ही दग़ा  दे गया..,लगा .,कि,
.., शायद हमने अभी सफारी खोली ही नहीं है ..,
.,यहीं साइड पॉकेट में तो थी .!.,नहीं शायद इस वाली में थी!!
 ...या इस में रख दिया होगा ..!?.
.,दिमाग ने मानो धड़कना ही छोड़ दिया था.,,
.,क्या हम कुछ ढूँढ रहे थे .,?
ये सफारी खुली क्यूँ है ?
...किसी को कुछ चाहिए इसमें से  ....?
..,कमरे की लाइट ऑन थी .,पर ऐसा लगा कि जैसे अँधेरा है.,सही से दिख नहीं रहा.,इसीलिए नहीं मिल रही है की-रिंग..
..यहीं कहीं होगी.. जायेगी कहाँ ?

.,लाइट फिर से ऑन की .,ऑफ की ..,टेबल-लैंप ऑन किया ..
...सारी फाइल्स...बाक़ी चीज़ें
...थोड़ी देर बाद पूरे कमरे में बिखरी पड़ी थी...
सफारी..पूरी तरह खाली हो चुकी थी .,
बहोत देर तक बैठा रहा ...ज़मीन पर...
होश तब आया जब फ़ोन की बेल बजी .,
देखा तो माँ., की कॉल थी .,उस वक़्त रिसीव नहीं की,..
...पूरा रूम बिखरा पड़ा था ..,चीज़ों को एक-एक कर फिर से सफारी  में.,उनकी जगह पर रखने लगे.
सब कुछ सही से फिर वैसे ही रख दिया था .,बस एक पुरानी नोटबुक ..,रह गयी थी ..,उसे रखने के लिए उठाया .,तो उसमे से कुछ कागज के टुकड़े जैसा गिरा..
.,नोटबुक सफारी में रख कर ..,उसे लॉक किया .,और उसे ऊपर रैक पर रख दिया ..
....तब तक माँ की कॉल दो बार और आ चुकी थी...सोचा के अभी बात करना ठीक नहीं रहेगा.....और बनेगा भी नहीं हमसे .,सो चल कर पहले थोड़ी चाय पी लेते हैं..,फिर बात करेंगे...
हाँथ-मुँह धुल कर.,,जाने के लिए तख़त के नीचे से अपनी चप्पल निकाली...पहनने के लिए .,तो फिर से नज़र उसी कागज के टुकड़े पर पड़ी..,जो अभी कुछ देर पहले उस पुरानी नोटबुक से गिरा था..
,,तख़त पर बैठे-बैठे .,वहीँ से वह कागज का टुकड़ा उठाया...
.
..
...
....,उसे उठाते ही ऐसा लगा..,जैसे किसी ने दिल को बीचो-बीच से मोड़ दिया हो....किसी काग़ज की तरह...
और सीने में बीचो-बीच कोई लकीर पड़ गयी हो.. 
,..शुरू  ही से एक मुश्किल रही है...,जब भी किसी की बहुत ज़्यादा ज़रुरत महसूस हुई है...वो नहीं रहा है..,नहीं मिल पाया है...
लोग तो लोग ...ये आँसू भी वक़्त पर साथ नहीं देते मेरा...जब भी इनकी सबसे ज़्यादा ज़रुरत महसूस हुई है...ये प्यारे...पता नहीं कहाँ चले जाते हैं....?
वैसा ही कुछ उस दिन भी हुआ था...उस कागज़ के टुकड़े को देखकर हमें..,हमारे आँसुओं की सबसे ज़्यादा ज़रुरत महसूस हुई थी...लेकिन वो नहीं मिल पाए थे..
....कभी कभी सोचता हूँ...शायद मेरे इन अश्क़ों को,.मुझसे बड़ा प्यार है...तभी तो मेरी आँखों से बहकर ..,मुझसे दूर नहीं जाना चाहते हैं... 
.,.
.,.
...जिसे हम कागज़ का बस एक टुकड़ा' समझ रहे थे ..,वो कागज़ के बस एक टुकड़े' से कहीं ज़्यादा निकला ...
...वो उसी मिल्कीबार चौकलेट की रैपर थी...
,जो पहली बार हमें प्रीती ने खिलाई थी...
,जो उसके दिल्लीवाले मामा लेकर आये थे...
,जिसे लेकर वो रात ही को मन्नू ..!मन्नू ..! करती मेरे पास आई थी...
,ये उसी चोकलेट की...रैपर  थी...
...रैपर पर नीचे छोटे अक्षरों में लिखा था.,
..........................................
................................................
...........................................................
...................................................................."मिस्टर-इण्डिया..!
.,
.,.
..,बड़ी देर तक .,वो रैपर हमें और हम उस रैपर को ....देखते रहे थे...
.,और उसे देखते-देखते मन में एक .,
.,नमकीन-मिठास सी महक उठी थी .,
..मिठास .,अपनी किसी प्यारी चीज़ के यूँ ही मिल जाने की थी..,
और.,
.,उसमें नमक का नमक-पन.,
वैसी ही एक और पुरानी चीज़ के..यूँ ही खो जाने का था...


****                                                                         ११


..कभी किसी से कोई चिढ़ नहीं रही.,न किसी-से .,न किसी-से ..
बस थोड़ी सी इस शहर से हो गयी थी.,और वो भी तब,.जब बचपन था..
आज इसी शहर में आकर .,उस की-रिंग" को खोकर ऐसा लग रहा है.,जैसे इस शहर ने हमसे अपना ,.

कोई पुराना हिसाब,.,. 


चुकता कर लिया हो...
लेकिन.,इस बात से इनकार भी नहीं कर सकता .,कि इसी शहर से इक मासूम सी ख़ुशी भी तो मिली है.,जिसका कहीं से कोई इल्म' तक नहीं था.
..वो चौकलेट की रैपर"
.... जिसे देखकर .,न सिर्फ मुँह में.,
...मन में भी कुछ मीठा सा महसूस हुआ था.
...अभी तो रहना ही है इस शहर में....देखते हैं...क्या-क्या मिलता है हमें इससे...जिसका कोई इल्म नहीं है...
...क्या पता.?.किसी दिन मेरे इस मुहल्ले के बहार वाली सड़क के,
..उस पार वाले मुहल्ले में...कोई मकान..,ऐसा भी हो.,जिसमें....प्रीती अपनी नानी के यहाँ आई हो....
..,क्या पता.?,ऐसे ही किसी दिन.,कोई हमें, आवाज़ दे....मन्नू..!.,मन्नू..!
..,और क्या पता.,?ऐसा नहीं भी हो......वो भूल चुकी हो हमें... क्या पता,.?
...
....नहीं पता कि, ये क्या है ?
.,ये भी नहीं पता कि ये क्यूँ., है,?
..लेकिन ऐसा है .,कि., कितनी भी बड़ी परेशानी हो .,पर अब वो हमें ज़्यादा देर तक परेशान करके रख नहीं पाती.
जब भी ऐसा कुछ होता है तो हम बस बिल्कुल अकेले रहना चाहते हैं.
और ऐसे में ग़र चाय का साथ मिल जाए.,तब तो बस पूछिये ही मत ..!
.,मुझे मेरा किरदार बदलते देर नहीं लगती...,सो
.,क़दम चल पड़े अपनी मंजिल की ओर..अशरफ़-चचा की चाय दूकान...  
., उस शाम चाय दूकान पर अशरफ़-चचा अकेले थे और दूकान पर भीड़ भी कम ही थी.
हमे चाय देने के बाद .,अपनी भी चाय लेकर हमारे साथ ही बैठ गए थे.
और बोले थे - डाक्टर साहब !
इधर काफी दिनों से आपने कुछ नया नहीं सुनाया,.!?
कुछ लिख नहीं रहे हैं .,क्या ?
हमने पहले ही की तरह उन्हें टोका था..,-- चचा.! आप हमें  डाक्टर साहब  क्यूँ बुलाते हैं?.,न तो हम डाक्टर ही हैं और न ही हम साहब .,!
तो फिर ये इलज़ाम क्यूँ?..अरे नाम से ही बुलाया करिए .!
तो बोले-अब क्या कहें ?इतना सब तो हमें नहीं पता .,बस दिल कहता है और हम बुला देते हैं.
चलिए अब फटा-फट कुछ सुना दीजिये .!
ये मुद्दा फिर कभी पूरा कर लिया जाएगा..
हमने उनके आगे समर्पण करते हुए अपनी ही.,कभी लिखी एक शायरी सुनाई थी,.

.,
..कुछ अश्क़ बहे फिर.. आँखों से.,
कुछ दिल को भी.. रोना आया,
यारों हम जिसको.. पा न सके.,
फिर याद उसे.. खोना आया...
....
...मेरा शायरी सुनने के बाद .,चचा .,
काफी देर तक.,बहुत-खूब .,बहुत -खूब ...कहते रहे थे .....




****                                                                         ०० 
.
..
...
.,खैर.,!
....एक बार फिर, गायब हो गयी प्रीती .,हमें., बिना बताये ..
,सही में उसे मिस्टर-इण्डिया" न कहें तो और क्या कहें..?
.,
..,
सुबह हो चुकी है ..,बाहर नारंगी धूप .,आहिस्ता-आहिस्ता...नारंगी से पानी जैसी .,पारदर्शी हो रही है
.,अखबार वाले विश्वनाथ बाबू ..दरवाज़े के नीचे से .,अखबार सरका-कर जा चुके हैं...
.,,पड़ोस की सक्सेना आंटी अपने तीनो बच्चों ..,रजनीश.,ख़ुशी और गुलशन को .,चिल्ला-चिल्लाकर स्कूल जाने के लिए तैयार कर रहीं हैं...
.,
...
..अब हमें भी जाना चाहिए ...
.,माँ को कॉल करनी है.,नहीं तो पूजा में उनका मन नहीं लगेगा...
..सोच रहे हैं.,
                                            .,,कि आज चौकलेट' खाते हैं ...
 .,डेरी मिल्क ?...........नहीं !!
          ..मिल्कीबार!"
               ..,क्यूँकि आज पहली तारीख नहीं है ..
....
.....आपका भी मन हो तो .!
आप भी खा सकते हैं .,हम आपसे शेयर करने को नहीं कहेंगे ..!
,.लेकिन अगर पॉसिबल हो तो, उनसे" ज़रूर शेयर करिए !
जो आपकी दी हुई न सिर्फ चौकलेट  की .,बल्कि ...उस रैपर की मिठास को भी समझते हैं...
...
....
और किसी को आज खुश करिए..!
कैसे भी ?.!
.,जैसे भी आपको करते बने...
...हम तो जा रहे, आज .,अपनी माँ को खुश करने ...!
हम घर जा रहे आज... माँ के पास ...
चलिए उठिये अब आप भी.,!.,देर मत करिए..!
शुरुआत अभी से करिए..!जो कोई भी सामने हो ...उसे शुक्रिया कहिये..
..और अगर मुमकिन हो...तो झप्पी भी दीजिये जादू की..!
और अगर सामने नहीं है...,तो ख़यालों में सबसे पहले जिसका भी तसव्वुर नज़र आये उसे शुक्रिया कहिये,..झप्पी उधार रखिये..!, मिलने पर दे दीजियेगा ,.!
.,अगर कोई सामने होगा तो,पहले वो ख़ुश हो जाएगा....और अगर ख़यालों  में होगा तो,पहले आप...!
...
....
.....अपना और अपनों का ख़याल रखिये..!
....थोड़ा और खुश रहिये..!
....और.,अपनी चीज़ों की थोड़ी-सी.,
.,बस थोड़ी-सी..,और,
......................................... हिफाज़त कीजिये.,!


... ग़र मुमकिन हुआ तो..,जल्द ही एक छोटी सी कविता....
.,या कुछ कविता जैसा...आपके लिए लेकर हम फिर हाज़िर होंगे....! 
                                                                                     
                                             


   ......ख़ुदा हाफ़िज़