Thursday 3 November 2016

नमस्ते लंदन "

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...कल रात तुम्हें वॉइस मैसेज भेजा था.
सुबह उठे तो सबसे पहले यही देखा कि.,तुमने मैसेज देखा है या ,नहीं..पर तुमने न सिर्फ मैसेज देखा था ,.रिप्लाई भी किया था.,बहोत ख़ुशी हुई कि ,चलो तुमने मेरी बातें पढ़ी तो सही..  
हाँ !,ये और बात है कि , तुम्हारा रिप्लाई झल्लाहट भरे लहज़े में आया था..,व्हाट इज़ दिस ,?
हमने रिप्लाई तो कर दिया है कि वो,.?है क्या..
लेकिन सब  कुछ फिर से वॉइस मैसेज में कहना मुश्किल था.इसलिए शब्दों में समझाने की कोशिश की है.. 
एक लंबा वक़्त गुज़र चुका है ,.हमारे तुम्हारे दर्मयाँ,.जिसमे हमने तुमसे हज़ारों शब्द कहे हैं,.सवाल किये हैं.. और तुमने बस दो टूक जवाब दिए हैं..एक दो बार को छोड़ कर.
यहाँ लिखना शुरू करने से पहले बहोत सारी बातें थी.,पर अभी  लगता है,.कि ,.अगर सारी बातें लिखी तो तुम्हें कहीं ये न लगे कि ,ये अपनी राईटिंग स्किल शो कर रहा है.. 
फिर भी ये ज़रूर कहूँगा कि ,तुम मेरे लिए मायने रखती हो..और हमेशा रखोगी..
हमने कभी किसी तरह के वादे में कोई यक़ीन नहीं रखा,,.और ना ही आज  रखते हैं..फिर भी तुमसे कई सारे वादे करना चाहते हैं.,लेकिन तुम हो कि ,...मेरी एक नहीं सुनती .. 
पता है प्रियम "?
गुस्सा नहीं होना तुम्हें इसी नाम से बुलाते हैं....इसलिए यही नाम जुबां पर आया। 
तुम्हें परेशान करना कभी मेरा मक़सद नहीं रहा.,हो ही नहीं सकता यार.,!
पर अब लगता है,.कि तुम्हें हम परेशान करते हैं..
***
पता है,.कभी गूगल पर अपना नाम सर्च करो ,!, .75सेकेण्ड्स में चार लाख सत्तर हज़ार रिजल्ट्स  हैं.,और अगर नेट की स्पीड अच्छी  हुई तो , .45 सेकेण्ड्स में ही..
जब भी कहीँ  तुम्हारे शहर का ज़िक़्र आता है.,तो ये मन बस तुम्हारा ही नाम गुनगुनाता है..
 क्या करें हम ऐसे ही हैं,. हमेशा ये बात ध्यान रहती है कि ,कभी किसी के लिए मेरे प्यार मेरे अपनेपन मे कोई कमी न हो.. 
.,और तुम" क्या कहूँ कि ,मेरे लिए क्या हो..?
आज भी वो दिन याद है ,जब हॉल में तमाशा मूवी देखते वक़्त इलाहाबाद ".,
तुम्हारे शहर का नाम अचानक से आया था.,तो पूरे हॉल में बस हमने ही अकेले सीटी बजायी थी..
तुम्हें इस तरह फिल्म में पाकर,.. 
अभी पिछले दिनों बेमन से कोई फिल्म देख रहे थे ,तभी किसी क़िरदार में तुम्हारा नाम मिल गया,..बस अब वो मेरी फेवरिट एक्ट्रेस हो गयी..
 और पता है.,? तुम्हारा ज़िक़्र न भी करूँ, तब भी तुम्हारी फ़िक़्र हमेशा ही बनी रहती है..
हर बार जब भी तुम्हारा नाम लेता हूँ.. तो यही सोचता हूँ.. कि ,कितने अच्छे ढंग से तुम्हारा नाम लूँ,.ताक़ि  तुम्हें ख़ुशी हो.. 

***

 हम तुम्हारे किस्से में भले ही न हों.,प्रियम "
..तुम रहोगी,.हमेशा,... 
पता है ?,बहोत कुछ जानना है तुम्हारे बारे में.. 
तुम कहती हो न,कि ,I DON'T TALK MUCH"...
तो अच्छा है न.. तुम खामोश ही रहना,.तुम्हारे हिस्से का भी,. हम ही बोल दिया करेंगे... 
खैर !दुआ रोज़ करते हैं कि ,तुम्हारा ड्रीम पूरा हो.. और जब कभी भूल जाते हैं,.तो जब भी याद आता है,.तुरंत ही कर देते हैं,. 
जैसे आज,.नहीं की थी.. ,सो अभी कर लेते हैं...कि,
.. भगवान् प्लीज् इस लड़की को  LONDON" ले जाइये,!
चलो अभी के लिए इतना ही बहोत है,,.बाक़ी बातें फिर कभी... 
                                                          ,.अपना ख़याल रखना !!
                                                           ,.ख़ुश रहना,!
                                                                                          नमस्ते लंदन "
                                                                          
















Sunday 9 October 2016

जब भी ये'' दिल उदास होता है.,


***

जब भी ये दिल उदास होता है ,
यहीं -कहीं तू' मेरे आस-पास होता है.. 
इसी यक़ीन पे रातों को नींद आती है,
मेरी नींदों में कहीं तू' भी है जो सोता है..

***

मुझे इस बात का हर रोज़ फ़क़्र होता है,
तेरी ख़ुशियों से मेरे दर्द का क़द' छोटा है..
दिलों के दरम्यान दूरी तेरी' मजबूरी है,
ये भी एहसास मुझे बार-बार होता है.. 
नहीं ऐसा नहीं कि फ़िर कोई ज़िया''नहीं मिली ,
मग़र ये प्यार है बस एक' बार होता है.. 
बस यही सोच कर ये दिल मेरा नहीं रोता ,
तू' भी क़तरों में संग आँसुओं के बहता है.. 
ज़ुबाँ पे नाम तेरा' ख़ुद -ब ख़ुद ही आता है,
ज़िक़्र जब भी कहीं शहर' का तेरे होता है.. 

***

कभी ज़हन में दर्द बनके जो' उभरता है,
इससे मुझमे तेर 'होने का यक़ीन बढ़ता है.. 
पास मेरे यही' बस एक जमा पूँजी है,
बदौलत जिसकी' ये दिल कोई ग़ज़ल कहता है.. 

***

                                                                                                                                                               ©

Thursday 11 August 2016

"जन्मदिन मुबारक़ हो.!


  ...कभी कभी सोचता हूँ कि,ये जो क़शमक़श होती रहती है मुझे अक्सर..क्या ये कभी ख़त्म भी होगी .?
,और फिर अपने जवाब के चलते ख़ुद पर ही हँसने का मन होता है.,थोड़ा मुस्कुरा भी लेता हूँ..लेकिन फिर अपने जवाब पर कुछ देर के लिए रुक जाना भी चाहता हूँ..
.,जवाब ही ऐसा है, क्या करूँ.,कैसे न रुकूँ?
हाँ,! ख़त्म होगी..,क्यूँ नहीं होगी.,भला ऐसी भी कोई चीज़ है क्या इस दुनियाँ में .?.,जो शुरू हो जाय और ख़त्म ना हो..

*** कुछ साल पहले...

उस दिन मेरा जन्मदिन था.
अगस्त.,२००८.घर से आये अभी पूरे एक महीने नहीं हुए थे.,इसलिए घर नहीं जा सके थे.माँ -पापा सबने सुबह ही फ़ोन करके आशीष दिया था.
लाडो,और माधव से रात में ही बात हुई थी.फिर अभिषेक भैया और आरती दी के सन्देश भी मिले थे.
सुबह उठे तो हनुमानगढ़ी.,फिर हज़रत बाबा की पुरानी मज़ार पर भी गए.कॉलेज ८:३० से था..देर ना हो इसलिए वहीँ से कॉलेज की राह पकड़ ली.
पहुँचे, तो प्रेयर शुरू होने वाली थी.क्लास में एंट्री की तो..ब्लैकबोर्ड पर बड़े और बोल्ड लेटर्स में लिखा नज़र आया..
"हैप्पी बर्थडे...
मुझे देखते ही सबने एक साथ...खूब ज़ोर से हैप्पी बर्थडे कहकर विश किया.
सबसे एक-एक कर मिलने के बाद .,हम लोग प्रेयर-ग्राउंड पर पहुँचे.
उस दिन हमारी क्लास की लाइन सबसे बाद में लगी थी.
प्रेयर शुरू हुई..
'दया कर दान भक्ति का हमे परमात्मा देना.! दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना..!'
आज भी इस प्रेयर की ग़र एक पंक्ति भी बोलता हूँ.,तो ख़ुद को वहीँ
प्रेयर-ग्राउंड में देखता हूँ..
प्रेयर के बाद हम सब क्लास में थे.हमारे क्लास-टीचर आये.,हमारी अटेंडेंस हुई..और जाते वक़्त मेरी पीठ थप-थपाकर आशीष भी दिया.
गुरुजनों के आशीष में शायद., या कहूँ कि.,यक़ीनन एक अजब ही ताक़त होती है.उस क्षण को याद कर आज भी रोम-रोम पुलकित हो उठता है.
इसके बाद रोज़ ही की तरह कक्षाएँ चली.,और क्रमशः सभी शिक्षकों के आशीष का गौरव प्राप्त हुआ.
दो बजे हमारी छुट्टी के बाद हम सभी दोस्त अशफाक़ भाईजान के कैफ़े पहुँचे..जिसका नाम था.,"गुस्ताख़ी माफ़ हो,!"
अशफाक़ भाई हम सब से पाँच-छह साल बड़े थे.,पर रहते वो हम लोगों के साथ दोस्तों की तरह ही थे.
रेस्तरां ज्यादा बड़ा नहीं था.,लेकिन हम उसे छोटा लगने ही नहीं देते थे.हम सब पहुँचते तो भाईजान सारी कुर्सियाँ बाहर लगवा देते..और जब कोई और आता,.तो हम अपनी कुर्सियां आपस में शेयर कर लेते थे.
इस तरह उनका रेस्तरां भी चलता रहता., और हमारा रिश्ता भी..
भाईजान के साथ भाभीजान..और दो और सहयोगी थे.कभी कभी यहाँ उनके अब्बू भी आते थे.,उनकी बिटिया और हम सबकी लाडली अनम' को अपनी गोद में लेकर.
भाईजान को जैसे ही ख़बर हुई कि,आज मेरा जन्मदिन है..दौड़ कर आये और गले लगते हुए मुबारक़ बात दी.भाभीजान ने अन्दर से झाँकते हुए ज़ोर से...कहा था-मुबारक़ हो भाईजान...! बहुत बहुत मुबारक़ हो.!
उस दिन भाभीजान ने..मुझे कॉफ़ी के साथ एक चौकलेट-पेस्ट्री बोनस में दी थी..,क्यूँकि उन्हें पता था कि,हमे ये ऑड-कॉबिंनेशन बहुत पसंद है.सबने अपनी अपनी पसंद की चीज़ें खायीं और कुल मिलाकर ८०० बिल आया १० लोगों का...जो हम लोगों ने ही काउंट किया था.
भाईजान उस दिन हमसे बिल लेते. ये आसान बात थोड़े ही थी..ऊपर से भाभीजान भी तो थी वहाँ.,वो हम पर इमोशनल अत्याचार ना करें ऐसा हो सकता था क्या..?
आते वक़्त हम लोग पैसे काउण्टर पर रखकर भाग आये थे..७५० रूपये...और ये भी कहा था..कि,भाभी आपकी तरफ़ से हमने ख़ुद को ५० रूपये शगुन के दे लिए.
और उसका भाभीजान ने जवाब ये दिया था..,कि,लौटिये,.! जायेंगे कहाँ फिर बताते हैं हम आपको.,कि शगुन क्या होता है.?
हमारे अपने जब हमे जीता हुआ और ख़ुद को हारा हुआ पाते हैं., तो ऐसी ही मीठी चेतावनी देते हैं..भाभी भी वही कर रहीं थीं.
अब तक कुछ पाँच बजने वाले थे..हम सबने एक दूसरे को बाय बोला और फिर कल मिलने के वादे के साथ अपने-अपने घरों की ओर चल पड़े.
इसके बाद हम और सौरभ..सौरभ के घर गए.माँ ने सेवइयाँ बनायीं थी ख़ास मेरे लिए.वहाँ से लौटते लौटते यही कुछ आठ बजने को रहे होंगे.
उस दिन सुबह से.,थोड़ी-धूप थोड़ा-छाँव सा मौसम था.लेकिन पिछले एक दो घंटे से मौसम कुछ मिज़ाज़ में लग रहा था.हवाएं चलना अब बंद हो गयीं थीं.और आसमान एक ओर से बादलों से भरता चला आ रहा था.ऐसा लग रहा था..कि,आज धरती पर जितने भी महादेव हैं.,सबका रुद्राभिषेक होने की तैयारी है..इस श्रावण-मास में..

***

अभी मेरे कमरे की दूरी यही कोई 5-6 किलोमीटर शेष रही होगी कि.,तभी बादलों ने पानी की पोटली खोलनी शुरू कर दी..टिप..टिप.,टिप..
थोड़ी सी बूँदा-बाँदी में ना हम रुकना ही चाहते हैं..और ना हमारी स्थितियाँ हमे रुकने ही देती हैं.लेकिन जब बूँदें संख्या में बढ़ जाती हैं.,तो हमें अक्सर रुकना ही पड़ता है..वही हुआ..बूँदें अब बारिश बनने लगी थी..लोग धीरे-धीरे कहीं न कहीं शरण लेने लगे थे..हमने भी पास ही एक चाय की दुकान पर शरण ली.
अभी थोड़ी देर ही हुई थी कि,,इसी बीच कहीं से सिगरेट की गंध ने मुझे आवाज़ दी.,और मुझे उस शख्स को देखने की तलब हुई..जो मेरे ही इर्द-गिर्द उस वक़्त उस सिगरेट के साथ खुश होने की कोशिश में था.
अमूमन इन चीज़ों में आदमी..,एक तरह का सहारा ढूँढता है..कुछ देर के लिए ही सही पर कोई हो...उसकी क़ैद में...उसकी गिरफ़्त में..जिस पर उसका पूरा अख्तियार हो.......और जिसका उस पर भी.
बचपन से ही,.मुझमे ये ऐब रहा.,और आज भी है.,कि इसके धारक पर एक नज़र डालना मेरे लिए बड़ा ज़रूरी हो जाता है..और वो सिर्फ इसलिए.,कि,ज़रा देखूँ कौन इस वक़्त सिगरेट पीता हुआ ख़ुद को...दुनियाँ का सबसे सुखी इंसान समझ रहा है..या कौन है जो अपना गम भुलाने के लिए.,टेंशन कम करने के लिए..इस सफ़ेद-अगरबत्ती का सहारा ले रहा है.
खैर,! बचपन में तो बस ये वजह होती थी कि.,कैसे आदमी नाक से धुँआ निकालता है..?
और जब कभी किसी दधीचि को इस चिराग के साथ देखता हूँ..तो मन बड़ा व्यथित होता है.,कि आखिर क्यूँ लोग अपने अन्दर कि बची-खुची अस्थियों को भी इसके धुएँ से सींच..,उसे कुरकुरा बना रहे..?
खैर.,! ईश्वर जाने..या हम भी कभी जान पाए ढंग से....तो बताएँगे आपको भी.
मैंने देखा कि,ये सिगरेट जिन उँगलियों में थी उस शख्स का चेहरा पूरी तरह...अजनबी नहीं था.अगले ही पल हम आश्वस्त हो गए.
ये विकास था...मेरा बालपन का मित्र.
बाक़ी चीजें तो बदल गयी थी...लेकिन चहरे में कुछ ख़ास बदलाव नहीं हुए थे.अब तक उसने भी हमे देख लिया था.और हमने एक दुसरे की तरफ़ अपने अपने क़दम भी बढ़ा ही दिए थे.
उस दिन हम लोग यही कोई सात या आठ साल बाद मिले थे.
खूब अच्छे से गले लगाया.और हाथ पकड़ कर बैठ गए वहीँ उसी चाय दूकान पर.बहोत सारी बातें हुई.
गले लगाते वक़्त...बस कुछ ही सेकण्ड्स के दर्मयाँ..बचपन की कई सारी  यादें आँखों  के सामने से..फ़िसल गयीं..कैसे उसने हमे एक दफ़े.,एक रुपये का सिक्का दिया था.,कैसे रूम छोड़कर जाते वक़्त..अपना क्रिकेट बैट हमे दे गया था...और कैसे खूब-खूब रोया था.
उसने सिगरेट की एक कश ली..और उसे फेकने लगा..मैंने मन किया-अरे अब पी लो..पैसों से आती है.!
उसने फेंक दी..फिर भी और बोला-इसीलिए तो फेंक रहा हूँ.,कि फिर आ जाएगी..यार रोज़-रोज़ थोड़े ही आएगा.
कितनी अपार प्रसन्नता थी उस वक़्त..ह्रदय में..क्या कहूँ,.?
लग रहा था मानो...कोई ख़ज़ाना मिल गया हो..पर विकी हमे कुछ उदास लग रहा था..और खुल के बात भी नहीं कर रहा था..जैसे बीच बीच में कहीं खो जाता था.

***

बारिश बंद हो चुकी थी.अब उस जगह सिर्फ हम और विकास थे.हमने दो चाय मंगवाई.,और पूछा के यहाँ कैसे.?तो पता चला- छोटे भाई विवेक का लखनऊ के किसी स्कूल में दाख़िला करवाने ले गया था.उसे हौस्टल में शिफ्ट करके..वापस घर जा रहा था.
सारी बातें हो जाने के बाद भी., अभी भी..वो वैसे ही खोया-खोया था.
कई बार लगा के कुछ कहते-कहते..रह गया.
फिर हमसे नहीं रहा गया तो हमने पूछा फिर से-...बताओ ना क्या हुआ..क्यूँ उदास दिख रहे..?.,बताओ हम शायद कुछ मदद कर सकें,..
इस बार उसने मेरी तरफ़ देखते हुए मुस्कराकर कहा- काश,.! तू कुछ कर सकता यार...
मैंने फिर टोंकते हुए कहा-अब बताओ.,क्या हुआ?
...एक झटके में विकास ने कुछ कहा और आसमान में ज़ोर से बिजली कड़की थी..,शायद मुझसे कहीं दूर और किसी के बहुत पास..कोई बिजली गिरी भी थी..जिसका मुझे सिर्फ अंदाज़ा भर था..
...आज ही के दिन पापा का एक्सीडेंट हुआ था..यार..!"...उसकी आँखें भर आई थी..मैं अवाक् था.,.
"आज का दिन.,ठीक उसी दिन की तरह,...जैसे कटने को ही नहीं आता यार..8 अगस्त 2002,!
आज सात साल हो गये..पर जब भी यह दिन आता है.तो ख़ुद से भी दूर जाना चाहता हूँ,.एक अजीब सा डर लगने लगता है,.किसी से कुछ बात करने की हिम्मत ही नहीं होती..,ऐसा लगता है..कि, कहीं वो फिर कुछ ऐसी ही कोई ख़बर ना सुना दे..,जिसे सुनकर सब कुछ ख़त्म सा महसूस हो,..इस दिन कहीं से भी कोई पुकारता है.,.तो एक बारगी दिल हक्क़ सा हो जाता है.,.लगता है पापा ने बुलाया क्या..?
आँखें बंद करता हूँ..तो उनकी आँखें नज़र आती हैं..
पता है..आदि?..आज के दिन किसी भी वर्दी वाले को देखता हूँ..तो अनायास ही..दिल कचोटने लगता है...तुम्हें तो याद ही होगा ना.?कैसे पापा शाम को जब थाने से लौटते., तो पान से उनके होंठ लाल होते थे..और कैसे हमारी बिल्डिंग के सारे बच्चे उनकी वर्दी देख कर डर के मारे .,उनके सामने नहीं पड़ते थे..और हम ख़ुद डर के मारे पढ़ने बैठ जाते थे.."
..बीच बीच में उसे हिचकियाँ आती थी..आँसू थे कि.,जैसे भीतर से किसी भट्ठी से होकर आ रहे थे..और आँखों को गर्म करते हुए..अनमने ढंग से गालों पर लुढ़क जाते थे..हम उसके आँसूं पोंछते.,.वो ख़ुद को संयत करता.,.और फिर बोलने लगता..,जब गला भर जाता तो..घूँट पीकर...फिर' आगे कहता..
उस पल..ऐसा लग रहा था.,मानो किसी गर्म भट्ठी के पास खड़ा हूँ..और खुद को तपता हुआ महसूस कर रहा हूँ...साँसे सीने में उतरतीं और आँखों से भाप बन कर बहार आतीं..जैसे सीने में कोई चिता जल रही हो...
उस दिन मैंने ये महसूस किया था..कि,जब आपका दुःख बहोत गहरा होता है..तो आँसूं भी बहोत गाढ़े हो जाते हैं...

***

...रास्ते भर..हम दोनों चुप रहे..बस-स्टैंड पहुँच कर, हमने उसे बस में बिठाया.,उसकी टिकेट ली..रात के साढ़े-दस बज रहे थे..माँ जी ने जो टिफ़िन दी थी..वो उसे दी..फिर से एक चाय पी..उसे अच्छे से गले लगाया..और बस में बिठाते वक़्त, माँ और अपना ख़याल रखने की हिदायत देकर...वहाँ से वापस अपने रूम की तरफ़ चल पड़े.
उस रात ठीक से नींद नहीं आई थी..वैसे भी कम ही आती है.
कई सारे प्रश्न ख़र-पतवार की तरह.,मन में इधर-उधर उड़ रहे थे.
किसी का जन्मदिन.,किसी का मृत्युदिन..
कहीं आने का हर्ष..,कहीं जाने का विषाद..
कहीं होने की खुशियाँ..,कहीं खोने की सिसकियाँ..
कहीं पाना उपहार.. कहीं करना अंतिम-संस्कार..
कहीं इक पुष्प का खिलना.,कहीं इक वृक्ष का मिट्टी में मिलना...

***

बचपन में हमारी स्कूल के प्रधानाचार्य जी ने कभी बतलाया था..कि युधिष्ठिर ने यक्ष के सभी प्रश्नों का सहीं जवाब दिया था.जिसमे एक प्रश्न यह भी था कि,जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है.?
और इसका जवाब है..मृत्यु"
हम जानते हैं कि.,एक ना एक दिन सभी को इस मृत्यु-सुंदरी" से मिलना ही है..लेकिन हम इसे स्वीकार नहीं पाते.लेकिन कहते हैं न कि,वक़्त सभी ज़ख्मों को भर देता है.और धीरे-धीरे सब भूल जाते हैं.
लेकिन ऐसा तभी होता है..जब मृत्यु आश्चर्य" ही रहे..आघात" ना बने.
और किसी की ऐसी..अचानक हुई मृत्यु आश्चर्य" कम..आघात" ज़्यादा होती है..
और.,वक़्त आघात के ज़ख्मों को किस तरह भरता है...कहा नहीं जा सकता..और तो और.,मन के ज़ख्मों को भरने का सलीक़ा शायद ही इस वक़्त को पता हो..
..उस दिन से., ये जन्मदिन-वन्म्दीन के उपलक्ष्य में 'केक-काटना.,या
सो-कॉल्ड मस्ती करना..कभी अच्छा ही नहीं लगा..माँ-बाप और बड़े-बुज़ुर्गों  का आशीर्वाद मिल जाए वही बहोत है..
हाँ,.! कोशिश करता हूँ.,.उस दिन किसी बच्चे के लिए कुछ करूँ..या फिर किसी बुज़ुर्ग से उसकी ज़ुबानी सुनूँ...उसके स्पर्श से ख़ुद को उस जहाँ से जोड़ कर महसूस कर सकूँ,.जिसमें अभी तक वह जी रहा है..और,..जिसमे उसका अगला जन्म होगा..
....मृत्यु का जहाँ,
...दो-चार दिन हुए..,किसी की फेसबुक-वॉल पर..मिस यू पापा की पोस्ट पढ़ी...और उसी दिन हम एक जन्मदिन की पार्टी से वापस आये थे..
..आम तौर पर लोगों को इन बातों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता..और पड़ना चाहिए कि नहीं..ये भी मुझे नहीं पता.
,रही मेरी इस क़शमक़श की बात..तो देखते हैं..इसका क्या होगा..?
खैर.!
.,आज जिनका भी "जन्मदिन हो..मेरी तरफ़ से ढेरों शुभकामनाएँ.!
                           "जन्मदिन मुबारक़ हो.!
                                         
                                                                            ..,ख़ुदा हाफ़िज़.!

Tuesday 7 June 2016

..., मेरी बातों का बरगद"

तारीख़-०५मई -२०१६ 

इस पेज पर.,आज से ठीक तीन महीने पहले की भी तारीख पड़ी है.,,५ फ़रवरी२०१६.
उस दिन शायद कुछ लिखना चाहा था.,पर लिख नहीं सके थे..या कहिये के आज लिखना तय था...तो उस दिन भला कैसे लिख लेते..?
अभी इस वक़्त ज़हन में बातों का बरगद...बेज़ार सा नज़र आ रहा है..
"बरगद..
.,बहुत बड़ा सा बरगद..जिसमे ढेर सारी शाखाएं-टहनियाँ.,खूब सारी बड़ी-छोटी-घनी जटाएं..और अपनी मनमानी शैली में अपनी ऐठन के साथ तन कर खड़ा...मोटा तना.जो देखने में कहीं से भी बहोत खूबसूरत नहीं दिख रहा.लेकिन इसकी उलझी हुई शाखों में कहीं ऊपर की ओर कुछ नयी कुछ पुरानी पतंगे भी दिख रहीं हैं.जिनके कागज़ी रंग भले ही कुछ फ़ीके पड़ गये हैं.लेकिन जिनमे अभी भी कुछ तो ऐसा है.,जो कभी फ़ीका,., हो ही नहीं सकता..और वो है उन पतंगों से जुड़ी बातें...उनसे जुड़े किस्से..

***

पिछले महीने अपने शहर जाना हुआ.जहाँ बचपन शुरू हुआ..बीता..
जहाँ से किसी बरगद के बढ़ने की  शुरुआत होती है.
उस बिल्डिंग के गेट पर क़दम रखते ही.,मुझे गेट के बायीं तरफ़ लगे बिजली के खम्भे से छुपकर खम्भे और दीवार के बीच सड़क की  ओर निहारता एक १०-१२ साल का बच्चा दिखता है..जो मैं हूँ..
आज से १२-१३ साल पहले हर रविवार अपने बाबा का इंतज़ार करता हुआ..
गेट से आगे बढ़ने पर सामने के कमरे के बरामदे  में कई चेहरे.,कई आवाजें दिखाई और सुनाई पड़ीं..
सबसे  पहले हाथ में चाय की कप लिए ..आवाज़ देतीं निम्मी दी.,फिर एक तरफ़ टयूशन वाले मास्टर जी..से मार खाता मेरा अपना दोस्त विक्की..और अपना चश्मा ठीक करते मास्टर जी..जिन्होंने शायद एक बार मुझे भी मारा था.और जो लगभग रोज़ ही मारते थे विक्की को.
और फिर शर्मा अंकल की  बड़ी विडियोकॉन की बड़ी कलर टीवी.,जिस पर मैंने लगातार दो दिन दो फिल्मे देखी थीं ..दोस्ती और दुश्मनी.,हिमालय की गोद में..

***

अब उस बरामदे में बड़े रंगीन शीशे लगे हैं..और कमरों में मकान मालकिन के बेटे अपने बीवी-बच्चों के साथ रहते हैं.
गेट से भीतर आते ही थोड़ी सी जगह खाली थी .,जिसमे हम बिल्डिंग के बच्चे(रिशू.,बिट्टू.,प्रीती.,शिवम्.हनी.) क्रिकेट खेलते थे..प्लास्टिक-बॉल से..और जिसकी सिक्स की बाउंड्री.,बगल के मुकेश के घर की  दीवार हुआ करती थी.,जिस पर सिक्स लगाना तब बड़ी वीरता की बात हुआ करती थी.
.,लेकिन अब उस छोटी सी जगह में बीचो-बीच एक दीवार खड़ी कर.,उस पर सीढ़ियाँ बना दी गयीं हैं...और घर का बँटवारा किया जा चुका है.
उस दिन उस तरफ़ जाना मुमकिन न हुआ..मैं अपनी सिक्स वाली बाउंड्री नहीं देख सका,.और न ही उससे होकर ऊपर जाने वाली वो सीढ़ियाँ ही..जिनसे होकर हम ऊपर जाते थे....छुपके-चुपके अपनी पतंगे उड़ाते थे..
..और वहीँ घर के बहार ही ..किसी पीर फ़क़ीर  की  तरह ख़ामोशी  के साथ खड़ा...वो" बरगद का बड़ा सा पेड़..जिसके नीचे की छाँव का घेरा हमारे खेल का मैदान हुआ करता था.
वो अभी भी उसी ख़ामोशी के साथ वहीँ खड़ा है.,पर अब शायद ही बच्चे वहां खेलते हों.
हाँ..,अब उसका वो सूखा तना किसी ने काट दिया है...जिस पर चढ़ कर हम बच्चे उसकी लम्बी-लम्बी जटाओं को पकड़कर हवा में झूल., टार्ज़न बनने की  कोशिश किया करते थे...और गिरते-पड़ते भी थे..

***

आज सालों बीत चुके..इन पतंगों की और बरगद की  जड़ों की बातों को...उनसे जुड़े किस्सों को.,पर न जाने किन मांझों से बाँधा था मैंने,.इन किस्सों के कन्नों को...जो अभी तक टूटे नहीं..उड़ रहे हैं...
आज भी रविवार था..,
रोज़ की ही तरह सुबह उठे और चाय पीने  के लिए घाट की  ओर चल पड़े..
आज थोड़ा जल्दी पहुँच गए थे...अभी तो  रूद्र की चाय की अँगीठी सुहागन भी नहीं हुई थी.
वहीँ सीढ़ियों पर बैठ गए..कुछ देर बाद आफ़ताब मियाँ भी गंगा उस पार पेड़ों के पीछे से धीरे-धीरे  बाहर  आ गए.
अब तक चाय बन चुकी थी.रूद्र ने चाय का पुरवा थमाया.,तो हम चाय लेकर दूसरी जगह आ बैठे,.और तब तक बैठे रहे जब तक.,धूप बर्दाश्त करने के लायक थी.
वहां से वापस आकर सरसरी निगाहों से अखबार भी  पढ़ लिया.
कॉफ़ी भी ख़त्म  की.,बाक़ी सारे काम भी किये...रोज़ के.,लेकिन मन अशांत ही रहा..
इस वक़्त तकरीबन चार बजने वाले हैं.
टेबल-लैंप रौशन है..
सामने पुनीत"का ख़त-बंद लिफ़ाफ़ा रखा है..जो मेरे भाई के अपनेपन की एक मिसाल है.
उसी के पास में डुग्गू की  दी हुई पेन अपने पारदर्शी बॉक्स से झाँक रही है.,जो मेरी बहन की मेरे लिए कुछ करने की एक चाहत है.
टेबल-लैंप के बिलकुल पास रखा पेन-स्टैंड भास्कर भैया के साथ चंद-दिनों में हुई आत्मीयता की एक झलक है.
अमूल-चौकलेट का ये बड़ा सा रैपर मन्जरी दीदा की उनके छोटे भाई के लिए उनका  स्नेह दर्शा रहा है.
...और यहाँ पास में सँभालकर रखा मेरे फ़ोन का खाली डब्बा..माँ की मेरे लिए फ़िक्र की, 
एक और कहानी कह रहा है..
ये सारी चीज़ें मेरे ज़हन में जन्मे ,..बढ़ रहे,..बरगद" की शाख़ों पर सजी पतंगें ही तो हैं....और कुछ तो ख़ुद में ही.,,एक शाख़..

***

@P

...आज तुमने एक वक़्त दिया था.,मिलने का.
और मैं,.. तुम्हारा मुन्तज़िर था..
वहाँ घाट की सीढ़ियों पर बैठे-बैठे.,मन में बहुत सारी बातें आयीं,.जिनमे से एक बात ये भी थी कि.,बाबा का इंतज़ार हमने भले ही हर रविवार किया हो.,लेकिन वो हर रविवार नहीं आते थे..
आज भी वैसा ही एक रविवार रहा..जिनमे मेरा इंतज़ार पूरा नहीं होता था..
...
..अभी के लिए इतना ही..
इसे यहीं., ख़त्म नहीं कर सकता...क्यूँकि,
अभी तो इस बरगद में.,
और न-जाने कितनी शाख़ें.,कितनी जटाएं.,और कितनी पतंगें आनी बाक़ी हैं...
...जो दिन-ब-दिन और घना होगा..
..जो दिन-ब-दिन  और बहुत कुछ देखेगा..और बहुत कुछ सोचेगा-समझेगा..और बढ़ेगा..खूब बढ़ेगा..
..और इस दौर में.,
..उसमे कुछ .,नयी पत्तियाँ भी आयेंगी..नयी..हरी पत्तियाँ..
..,क्यूँकि.,ये मेरे ज़हन का बरगद है...
                                             
                     ..., मेरी बातों का बरगद"








@p


Saturday 14 May 2016

..,थोड़ा ही सही



थोड़ा ही सही पर पास थी तुम,
इक पाक़ीज़ा एहसास थी तुम..
आये जो मुझे वो रास थी तुम,
और एक अजब सा त्रास थी तुम..
थी अपनी तो तुम सबके लिए, 
पर मेरे लिए कुछ ख़ास थी तुम..
**
रातों की नाज़ुक नीद भी थी,
और सुबह कि पहली चाय थी तुम..
जिसकी अभिव्यक्ति मौन करे,
वही शब्दहीन सी याद थी तुम..
कभी कृष्ण-पक्ष की विभावरी, 
कभी शुक्ल-पक्ष का चाँद थी तुम..
**
थी कभी चमकता भानु गगन,
तो कभी पिघलती शाम थी तुम..
मन-मथुरा जिस बिन निर्धन हो,
उस वृन्दावन का धन थी तुम..
शरदीय-चैत्र नवरात्रि भी थी,
फिर पाक़ माह-ए-रमजान थी तुम.. 
**
इक अन्य-अनन्य कल्पना भी,
और एक अमिय-वरदान थी तुम..
थी पहले-पहल की मुश्किल तुम,
फिर सहज-सिद्ध आसान थी तुम..
खुशियों में अधर-मुस्कान थी तुम,
और दु:खद क्षणों में राम थी तुम..
**
मेरे मन का इक पुष्प-कँवल,
प्राणों का अंतस्थल थी तुम..
बिन जिसके धीरज-धूमिल हो,
सच्चा वो मेरा संबल थी तुम..
मरुभूमि जिसे पा भूमि बनी,
उसकी नियति का जल थी तुम..
**
मेरा सर्वस्व मेरा गौरव,
मेरा जीवन अभिमान थी तुम..
हों सब इससे अनभिज्ञ मगर,
इस सच से कहाँ अनजान थी तुम,?
जैसी भी थी..,जितनी भी थी,
मेरे तो.. ''चारो धाम थी तुम..
मैं इक सागर था प्यासा सा,
और उसकी पावन प्यास थी तुम..
     ..इक पाक़ीज़ा एहसास थी.. तुम'
     ..थोड़ा ही सही पर पास थी.. तुम'


.@

Saturday 30 January 2016

इस बार...तुम' कुछ ग़लत' आये हो...

***
इस बार...तुम' कुछ ग़लत' आये हो...
शायद वक़्त से..बहुत पहले,
या फिर..बेवक्त' आये हो..
...पर इस बार..तुम' कुछ ग़लत ' आये हो...
***
.,अब क्या,?
.,अब क्यूँ,?
.,किसलिए..?,और किसके लिए आये हो.,?
अब...कुछ भी तो नहीं मेरे पास.,
जो था'.,वो' दिया तो था तुम्हें पिछली बार.,
पर उसे' तो तुम कहीं छोड़' आये हो..
गए साल कहीं अख़बार  में पढ़ी थी ये ख़बर,
औरों की तरह तुम भी वो पुराना दिल'...कहीं तोड़' आये हो...
...इस बार...तुम कुछ ग़लत 'आये हो ..
***
न..ना.!
बुरा मत मानो..!
ये शिक़ायत' नहीं.,बस एक रवायत' है.,
जो मुझे निभानी है..तुम्हारी बदौलत..
क्योंकि तुम.,मेरी बला से .,इसका इक सिरा',..कब का....,कहीं भूल' आये हो..!
...इस बार तुम कुछ...
***
जाओ..!
वापस चले जाओ..!
इस बार जो आये हो तो.,हमने तुम्हें माफ़ किया.,
अपना ज़ख़्मी दिल हमने अपनी तरफ से साफ़ किया..
..लेकिन,.अब इस राह मत आना.!
बहुत रोई हैं...ये आँखें.,
इन्हें अब और...मत रुलाना.!
थोड़ा वक़्त तो लगता ही है...सम्भलने में .,
यूँ ही ..बेवक्त आकर फिर से..,मत गिरना .,!
..जाओ और अब मत आना..!
***
..अच्छा इक बात पूछूं.,?
,बताओगे ..?
अब तो तुम्हें ये कसम देते भी नहीं बनती.,
,कि कुछ भी नहीं छुपाओगे..
...
.,क्या? हम तुम्हें अब., ज़रा भी याद नहीं आते .,
या अब तुम गंगा., उस पार नहीं जाते..
.,क्या? हमारी तुम्हें., कहीं भी याद नहीं आती .,
या घाटों कि वो सीढ़ियाँ., तुम्हें अब नहीं बुलाती ..
.,क्या तुम अब., रातों में चैन से सोते हो.?
या मेरी तरह., तुम भी तन्हा बैठ छत पर रोते हो..
.,क्या चाँद अब तुम्हारी., खिड़की पे नहीं आता.,
या अब तुम्हें वो उतना., पहले सा नहीं भाता ..
.,क्या,? रास्तों के मोड़., तुम्हें अब रोकते नहीं .,
या अब तुम इन मसलों पे., ज़्यादा सोचते नहीं ..
.,क्या,? अब तुम पीली-पतंगें.,  नहीं उड़ाते .,
या उड़ाते तो हो., पर पेंच अब नहीं लड़ाते ..
.,क्या,? अब मुझे देखने का., तुम्हारा मन नहीं होता .,
या अब तुम्हारे दिल में., वो सूनापन नहीं होता ..
.,क्या,? अब तुम मेरा कहीं,. इंतज़ार नहीं करते..
या अब मेरे लिए अपना वक़्त., बरबाद नहीं करते ..
.,क्या,? अब हम तुम्हारे,. लायक़ नहीं रहे .,
या इश्क़ में तुम अब,. अलानाहक़ नहीं रहे ...
...
....
***
तो कहो,.!
..अब क्या कहें.,?
.,कि.,
..इसे ख़त्म' कर दो...
यहाँ घाटों में एक घाट ..हरिश्चन्द्र' भी है,
वहीँ इक रस्म' के तहत., मुझे भी भस्म' कर दो..
..बहुत कर ली मुहब्बत' इस जहाँ' में ,
...मुझे अब ले चलो' और दफ्न' कर दो...
..
***
..ये पहले भी कही,. और फिर से यह दोहरा' रहे हैं..
जहाँ छोड़ा था तुमने,. हम वहीँ' से आ रहें..
,.सो अब बेहतर यही होगा,. कि तुम ख़ुद को ये 'समझाओ .,
हम अब वैसे' नहीं,. जैसा हमे तुम छोड़' आये हो..
बहुत से मोड़' आते हैं..,सफ़र ये' है ही कुछ ऐसा .,
उन्हीं में तुम भी अपने नाम' का,. इक मोड़' लाये हो..
....
......
.......बुरा मत मानना लेकिन,. सदाक़त ही यही है..,
.......बुरा मत मानना लेकिन,. हकीक़त भी यही है...

                             कि,तुम इस बार कुछ गलत आये हो.,
                              .,शायद वक़्त से.,
बहुत पहले.,
                                या फिर,.

                            ..,बेवक़्त आये हो..
                           पर .,.इस बार जो आये हो...तुम '
                                 .कुछ ग़लत'आये हो...
                        

                         ,पर .,.इस बार जो आये हो...तुम '
                                .कुछ  ग़लत'आये हो...