Thursday 11 August 2016

"जन्मदिन मुबारक़ हो.!


  ...कभी कभी सोचता हूँ कि,ये जो क़शमक़श होती रहती है मुझे अक्सर..क्या ये कभी ख़त्म भी होगी .?
,और फिर अपने जवाब के चलते ख़ुद पर ही हँसने का मन होता है.,थोड़ा मुस्कुरा भी लेता हूँ..लेकिन फिर अपने जवाब पर कुछ देर के लिए रुक जाना भी चाहता हूँ..
.,जवाब ही ऐसा है, क्या करूँ.,कैसे न रुकूँ?
हाँ,! ख़त्म होगी..,क्यूँ नहीं होगी.,भला ऐसी भी कोई चीज़ है क्या इस दुनियाँ में .?.,जो शुरू हो जाय और ख़त्म ना हो..

*** कुछ साल पहले...

उस दिन मेरा जन्मदिन था.
अगस्त.,२००८.घर से आये अभी पूरे एक महीने नहीं हुए थे.,इसलिए घर नहीं जा सके थे.माँ -पापा सबने सुबह ही फ़ोन करके आशीष दिया था.
लाडो,और माधव से रात में ही बात हुई थी.फिर अभिषेक भैया और आरती दी के सन्देश भी मिले थे.
सुबह उठे तो हनुमानगढ़ी.,फिर हज़रत बाबा की पुरानी मज़ार पर भी गए.कॉलेज ८:३० से था..देर ना हो इसलिए वहीँ से कॉलेज की राह पकड़ ली.
पहुँचे, तो प्रेयर शुरू होने वाली थी.क्लास में एंट्री की तो..ब्लैकबोर्ड पर बड़े और बोल्ड लेटर्स में लिखा नज़र आया..
"हैप्पी बर्थडे...
मुझे देखते ही सबने एक साथ...खूब ज़ोर से हैप्पी बर्थडे कहकर विश किया.
सबसे एक-एक कर मिलने के बाद .,हम लोग प्रेयर-ग्राउंड पर पहुँचे.
उस दिन हमारी क्लास की लाइन सबसे बाद में लगी थी.
प्रेयर शुरू हुई..
'दया कर दान भक्ति का हमे परमात्मा देना.! दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना..!'
आज भी इस प्रेयर की ग़र एक पंक्ति भी बोलता हूँ.,तो ख़ुद को वहीँ
प्रेयर-ग्राउंड में देखता हूँ..
प्रेयर के बाद हम सब क्लास में थे.हमारे क्लास-टीचर आये.,हमारी अटेंडेंस हुई..और जाते वक़्त मेरी पीठ थप-थपाकर आशीष भी दिया.
गुरुजनों के आशीष में शायद., या कहूँ कि.,यक़ीनन एक अजब ही ताक़त होती है.उस क्षण को याद कर आज भी रोम-रोम पुलकित हो उठता है.
इसके बाद रोज़ ही की तरह कक्षाएँ चली.,और क्रमशः सभी शिक्षकों के आशीष का गौरव प्राप्त हुआ.
दो बजे हमारी छुट्टी के बाद हम सभी दोस्त अशफाक़ भाईजान के कैफ़े पहुँचे..जिसका नाम था.,"गुस्ताख़ी माफ़ हो,!"
अशफाक़ भाई हम सब से पाँच-छह साल बड़े थे.,पर रहते वो हम लोगों के साथ दोस्तों की तरह ही थे.
रेस्तरां ज्यादा बड़ा नहीं था.,लेकिन हम उसे छोटा लगने ही नहीं देते थे.हम सब पहुँचते तो भाईजान सारी कुर्सियाँ बाहर लगवा देते..और जब कोई और आता,.तो हम अपनी कुर्सियां आपस में शेयर कर लेते थे.
इस तरह उनका रेस्तरां भी चलता रहता., और हमारा रिश्ता भी..
भाईजान के साथ भाभीजान..और दो और सहयोगी थे.कभी कभी यहाँ उनके अब्बू भी आते थे.,उनकी बिटिया और हम सबकी लाडली अनम' को अपनी गोद में लेकर.
भाईजान को जैसे ही ख़बर हुई कि,आज मेरा जन्मदिन है..दौड़ कर आये और गले लगते हुए मुबारक़ बात दी.भाभीजान ने अन्दर से झाँकते हुए ज़ोर से...कहा था-मुबारक़ हो भाईजान...! बहुत बहुत मुबारक़ हो.!
उस दिन भाभीजान ने..मुझे कॉफ़ी के साथ एक चौकलेट-पेस्ट्री बोनस में दी थी..,क्यूँकि उन्हें पता था कि,हमे ये ऑड-कॉबिंनेशन बहुत पसंद है.सबने अपनी अपनी पसंद की चीज़ें खायीं और कुल मिलाकर ८०० बिल आया १० लोगों का...जो हम लोगों ने ही काउंट किया था.
भाईजान उस दिन हमसे बिल लेते. ये आसान बात थोड़े ही थी..ऊपर से भाभीजान भी तो थी वहाँ.,वो हम पर इमोशनल अत्याचार ना करें ऐसा हो सकता था क्या..?
आते वक़्त हम लोग पैसे काउण्टर पर रखकर भाग आये थे..७५० रूपये...और ये भी कहा था..कि,भाभी आपकी तरफ़ से हमने ख़ुद को ५० रूपये शगुन के दे लिए.
और उसका भाभीजान ने जवाब ये दिया था..,कि,लौटिये,.! जायेंगे कहाँ फिर बताते हैं हम आपको.,कि शगुन क्या होता है.?
हमारे अपने जब हमे जीता हुआ और ख़ुद को हारा हुआ पाते हैं., तो ऐसी ही मीठी चेतावनी देते हैं..भाभी भी वही कर रहीं थीं.
अब तक कुछ पाँच बजने वाले थे..हम सबने एक दूसरे को बाय बोला और फिर कल मिलने के वादे के साथ अपने-अपने घरों की ओर चल पड़े.
इसके बाद हम और सौरभ..सौरभ के घर गए.माँ ने सेवइयाँ बनायीं थी ख़ास मेरे लिए.वहाँ से लौटते लौटते यही कुछ आठ बजने को रहे होंगे.
उस दिन सुबह से.,थोड़ी-धूप थोड़ा-छाँव सा मौसम था.लेकिन पिछले एक दो घंटे से मौसम कुछ मिज़ाज़ में लग रहा था.हवाएं चलना अब बंद हो गयीं थीं.और आसमान एक ओर से बादलों से भरता चला आ रहा था.ऐसा लग रहा था..कि,आज धरती पर जितने भी महादेव हैं.,सबका रुद्राभिषेक होने की तैयारी है..इस श्रावण-मास में..

***

अभी मेरे कमरे की दूरी यही कोई 5-6 किलोमीटर शेष रही होगी कि.,तभी बादलों ने पानी की पोटली खोलनी शुरू कर दी..टिप..टिप.,टिप..
थोड़ी सी बूँदा-बाँदी में ना हम रुकना ही चाहते हैं..और ना हमारी स्थितियाँ हमे रुकने ही देती हैं.लेकिन जब बूँदें संख्या में बढ़ जाती हैं.,तो हमें अक्सर रुकना ही पड़ता है..वही हुआ..बूँदें अब बारिश बनने लगी थी..लोग धीरे-धीरे कहीं न कहीं शरण लेने लगे थे..हमने भी पास ही एक चाय की दुकान पर शरण ली.
अभी थोड़ी देर ही हुई थी कि,,इसी बीच कहीं से सिगरेट की गंध ने मुझे आवाज़ दी.,और मुझे उस शख्स को देखने की तलब हुई..जो मेरे ही इर्द-गिर्द उस वक़्त उस सिगरेट के साथ खुश होने की कोशिश में था.
अमूमन इन चीज़ों में आदमी..,एक तरह का सहारा ढूँढता है..कुछ देर के लिए ही सही पर कोई हो...उसकी क़ैद में...उसकी गिरफ़्त में..जिस पर उसका पूरा अख्तियार हो.......और जिसका उस पर भी.
बचपन से ही,.मुझमे ये ऐब रहा.,और आज भी है.,कि इसके धारक पर एक नज़र डालना मेरे लिए बड़ा ज़रूरी हो जाता है..और वो सिर्फ इसलिए.,कि,ज़रा देखूँ कौन इस वक़्त सिगरेट पीता हुआ ख़ुद को...दुनियाँ का सबसे सुखी इंसान समझ रहा है..या कौन है जो अपना गम भुलाने के लिए.,टेंशन कम करने के लिए..इस सफ़ेद-अगरबत्ती का सहारा ले रहा है.
खैर,! बचपन में तो बस ये वजह होती थी कि.,कैसे आदमी नाक से धुँआ निकालता है..?
और जब कभी किसी दधीचि को इस चिराग के साथ देखता हूँ..तो मन बड़ा व्यथित होता है.,कि आखिर क्यूँ लोग अपने अन्दर कि बची-खुची अस्थियों को भी इसके धुएँ से सींच..,उसे कुरकुरा बना रहे..?
खैर.,! ईश्वर जाने..या हम भी कभी जान पाए ढंग से....तो बताएँगे आपको भी.
मैंने देखा कि,ये सिगरेट जिन उँगलियों में थी उस शख्स का चेहरा पूरी तरह...अजनबी नहीं था.अगले ही पल हम आश्वस्त हो गए.
ये विकास था...मेरा बालपन का मित्र.
बाक़ी चीजें तो बदल गयी थी...लेकिन चहरे में कुछ ख़ास बदलाव नहीं हुए थे.अब तक उसने भी हमे देख लिया था.और हमने एक दुसरे की तरफ़ अपने अपने क़दम भी बढ़ा ही दिए थे.
उस दिन हम लोग यही कोई सात या आठ साल बाद मिले थे.
खूब अच्छे से गले लगाया.और हाथ पकड़ कर बैठ गए वहीँ उसी चाय दूकान पर.बहोत सारी बातें हुई.
गले लगाते वक़्त...बस कुछ ही सेकण्ड्स के दर्मयाँ..बचपन की कई सारी  यादें आँखों  के सामने से..फ़िसल गयीं..कैसे उसने हमे एक दफ़े.,एक रुपये का सिक्का दिया था.,कैसे रूम छोड़कर जाते वक़्त..अपना क्रिकेट बैट हमे दे गया था...और कैसे खूब-खूब रोया था.
उसने सिगरेट की एक कश ली..और उसे फेकने लगा..मैंने मन किया-अरे अब पी लो..पैसों से आती है.!
उसने फेंक दी..फिर भी और बोला-इसीलिए तो फेंक रहा हूँ.,कि फिर आ जाएगी..यार रोज़-रोज़ थोड़े ही आएगा.
कितनी अपार प्रसन्नता थी उस वक़्त..ह्रदय में..क्या कहूँ,.?
लग रहा था मानो...कोई ख़ज़ाना मिल गया हो..पर विकी हमे कुछ उदास लग रहा था..और खुल के बात भी नहीं कर रहा था..जैसे बीच बीच में कहीं खो जाता था.

***

बारिश बंद हो चुकी थी.अब उस जगह सिर्फ हम और विकास थे.हमने दो चाय मंगवाई.,और पूछा के यहाँ कैसे.?तो पता चला- छोटे भाई विवेक का लखनऊ के किसी स्कूल में दाख़िला करवाने ले गया था.उसे हौस्टल में शिफ्ट करके..वापस घर जा रहा था.
सारी बातें हो जाने के बाद भी., अभी भी..वो वैसे ही खोया-खोया था.
कई बार लगा के कुछ कहते-कहते..रह गया.
फिर हमसे नहीं रहा गया तो हमने पूछा फिर से-...बताओ ना क्या हुआ..क्यूँ उदास दिख रहे..?.,बताओ हम शायद कुछ मदद कर सकें,..
इस बार उसने मेरी तरफ़ देखते हुए मुस्कराकर कहा- काश,.! तू कुछ कर सकता यार...
मैंने फिर टोंकते हुए कहा-अब बताओ.,क्या हुआ?
...एक झटके में विकास ने कुछ कहा और आसमान में ज़ोर से बिजली कड़की थी..,शायद मुझसे कहीं दूर और किसी के बहुत पास..कोई बिजली गिरी भी थी..जिसका मुझे सिर्फ अंदाज़ा भर था..
...आज ही के दिन पापा का एक्सीडेंट हुआ था..यार..!"...उसकी आँखें भर आई थी..मैं अवाक् था.,.
"आज का दिन.,ठीक उसी दिन की तरह,...जैसे कटने को ही नहीं आता यार..8 अगस्त 2002,!
आज सात साल हो गये..पर जब भी यह दिन आता है.तो ख़ुद से भी दूर जाना चाहता हूँ,.एक अजीब सा डर लगने लगता है,.किसी से कुछ बात करने की हिम्मत ही नहीं होती..,ऐसा लगता है..कि, कहीं वो फिर कुछ ऐसी ही कोई ख़बर ना सुना दे..,जिसे सुनकर सब कुछ ख़त्म सा महसूस हो,..इस दिन कहीं से भी कोई पुकारता है.,.तो एक बारगी दिल हक्क़ सा हो जाता है.,.लगता है पापा ने बुलाया क्या..?
आँखें बंद करता हूँ..तो उनकी आँखें नज़र आती हैं..
पता है..आदि?..आज के दिन किसी भी वर्दी वाले को देखता हूँ..तो अनायास ही..दिल कचोटने लगता है...तुम्हें तो याद ही होगा ना.?कैसे पापा शाम को जब थाने से लौटते., तो पान से उनके होंठ लाल होते थे..और कैसे हमारी बिल्डिंग के सारे बच्चे उनकी वर्दी देख कर डर के मारे .,उनके सामने नहीं पड़ते थे..और हम ख़ुद डर के मारे पढ़ने बैठ जाते थे.."
..बीच बीच में उसे हिचकियाँ आती थी..आँसू थे कि.,जैसे भीतर से किसी भट्ठी से होकर आ रहे थे..और आँखों को गर्म करते हुए..अनमने ढंग से गालों पर लुढ़क जाते थे..हम उसके आँसूं पोंछते.,.वो ख़ुद को संयत करता.,.और फिर बोलने लगता..,जब गला भर जाता तो..घूँट पीकर...फिर' आगे कहता..
उस पल..ऐसा लग रहा था.,मानो किसी गर्म भट्ठी के पास खड़ा हूँ..और खुद को तपता हुआ महसूस कर रहा हूँ...साँसे सीने में उतरतीं और आँखों से भाप बन कर बहार आतीं..जैसे सीने में कोई चिता जल रही हो...
उस दिन मैंने ये महसूस किया था..कि,जब आपका दुःख बहोत गहरा होता है..तो आँसूं भी बहोत गाढ़े हो जाते हैं...

***

...रास्ते भर..हम दोनों चुप रहे..बस-स्टैंड पहुँच कर, हमने उसे बस में बिठाया.,उसकी टिकेट ली..रात के साढ़े-दस बज रहे थे..माँ जी ने जो टिफ़िन दी थी..वो उसे दी..फिर से एक चाय पी..उसे अच्छे से गले लगाया..और बस में बिठाते वक़्त, माँ और अपना ख़याल रखने की हिदायत देकर...वहाँ से वापस अपने रूम की तरफ़ चल पड़े.
उस रात ठीक से नींद नहीं आई थी..वैसे भी कम ही आती है.
कई सारे प्रश्न ख़र-पतवार की तरह.,मन में इधर-उधर उड़ रहे थे.
किसी का जन्मदिन.,किसी का मृत्युदिन..
कहीं आने का हर्ष..,कहीं जाने का विषाद..
कहीं होने की खुशियाँ..,कहीं खोने की सिसकियाँ..
कहीं पाना उपहार.. कहीं करना अंतिम-संस्कार..
कहीं इक पुष्प का खिलना.,कहीं इक वृक्ष का मिट्टी में मिलना...

***

बचपन में हमारी स्कूल के प्रधानाचार्य जी ने कभी बतलाया था..कि युधिष्ठिर ने यक्ष के सभी प्रश्नों का सहीं जवाब दिया था.जिसमे एक प्रश्न यह भी था कि,जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है.?
और इसका जवाब है..मृत्यु"
हम जानते हैं कि.,एक ना एक दिन सभी को इस मृत्यु-सुंदरी" से मिलना ही है..लेकिन हम इसे स्वीकार नहीं पाते.लेकिन कहते हैं न कि,वक़्त सभी ज़ख्मों को भर देता है.और धीरे-धीरे सब भूल जाते हैं.
लेकिन ऐसा तभी होता है..जब मृत्यु आश्चर्य" ही रहे..आघात" ना बने.
और किसी की ऐसी..अचानक हुई मृत्यु आश्चर्य" कम..आघात" ज़्यादा होती है..
और.,वक़्त आघात के ज़ख्मों को किस तरह भरता है...कहा नहीं जा सकता..और तो और.,मन के ज़ख्मों को भरने का सलीक़ा शायद ही इस वक़्त को पता हो..
..उस दिन से., ये जन्मदिन-वन्म्दीन के उपलक्ष्य में 'केक-काटना.,या
सो-कॉल्ड मस्ती करना..कभी अच्छा ही नहीं लगा..माँ-बाप और बड़े-बुज़ुर्गों  का आशीर्वाद मिल जाए वही बहोत है..
हाँ,.! कोशिश करता हूँ.,.उस दिन किसी बच्चे के लिए कुछ करूँ..या फिर किसी बुज़ुर्ग से उसकी ज़ुबानी सुनूँ...उसके स्पर्श से ख़ुद को उस जहाँ से जोड़ कर महसूस कर सकूँ,.जिसमें अभी तक वह जी रहा है..और,..जिसमे उसका अगला जन्म होगा..
....मृत्यु का जहाँ,
...दो-चार दिन हुए..,किसी की फेसबुक-वॉल पर..मिस यू पापा की पोस्ट पढ़ी...और उसी दिन हम एक जन्मदिन की पार्टी से वापस आये थे..
..आम तौर पर लोगों को इन बातों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता..और पड़ना चाहिए कि नहीं..ये भी मुझे नहीं पता.
,रही मेरी इस क़शमक़श की बात..तो देखते हैं..इसका क्या होगा..?
खैर.!
.,आज जिनका भी "जन्मदिन हो..मेरी तरफ़ से ढेरों शुभकामनाएँ.!
                           "जन्मदिन मुबारक़ हो.!
                                         
                                                                            ..,ख़ुदा हाफ़िज़.!