Thursday 5 November 2015

फिर क्यूँ,.?,मैं तुम" पर रुकता हूँ...


***
इन दिनों तसव्वुर में बस इक,
       तस्वीर बना कर रखता हूँ..
यूँ रुकना फ़ितरत मेरी नहीं,
       फिर क्यूँ.,?,मैं तुम पर रुकता हूँ..
तुम ख़ुश हो या हो ना-ख़ुश  इन,
      बातों की वक़ालत करता हूँ..
सारी राहों को भूल-भाल.,
     इक तेरी गली में रुकता हूँ..
तुम ऐसी भी कोई खूब नहीं.,
     फिर क्यूँ..?,तुम्हें हूर समझता हूँ..

***

तुम' मुझसी नहीं मैं' तुमसा नहीं.,
     ये बातें भी ख़ुद से कहता हूँ.,
पर ना जाने क्यूँ.,?,दिल मेरा.. 
     कुछ तेरे खिलाफ़ में सुनता नहीं..
मैं कहता हूँ दिल तू ऐसा न कर.,
    फिर ख़ुद ही बग़ावत करता हूँ...
कल-तक जो ज़रा सी उलझन थी.,
    अब उसमे और उलझता हूँ...
इतना-उतना इसे मत समझो..
    जो भी है मुक़म्मल करता हूँ...
चाहे सब विस्मृत हो जाए.,
    पर याद तुम्हें क्यूँ,.?,रखता हूँ..

***

माँ से हर बार कहा सच ही.,
    पर अब जाने क्यूँ,.?,अटकता हूँ.
कल फिर टोंका था माँ ने मुझे.,
    .,और पूछा-सब कुछ ठीक तो है..?
मैंने कह तो दिया-हाँ..!सब बढ़िया..!
    पर सच है ये झूठ मैं कहता हूँ..
..,कल तुमने कहा-अब मत मिलना.!
इस राह पे हासिल कुछ भी नहीं.!
    और सच ही कहा.,कुछ ग़लत नहीं!,
फिर क्यूँ.,?,इस राह पे चलता हूँ..
    तुझमें तो ख़ुदा भी दिखता नहीं,
फिर क्यूँ,.?,सज़दे में झुकता हूँ..
   तुम कोई ग़ज़ल या कविता नहीं,
फिर क्यूँ,.?,हर हर्फ़ में लिखता हूँ..

***

मैं जानता हूँ...तुम क़ाबिल हो,
     अपना ख़याल ख़ुद रख लोगी.
तुम्हें चाहने वाले कम भी नहीं,
     क्यूँ,.?,तुम्हें कहीं मुश्किल होगी..
फिर क्यूँ,.?,ख़ुद को फुसलाता हूँ..
     फिर क्यूँ,.?,इक चाह सी रखता हूँ...?
तुम्हें सड़कें..पार कराऊँ मैं..
     तुम्हें बारिश..से भी बचाऊँ मैं..
तुम्हें गिरते..हुए सम्भालूँ मैं..
     तुम्हें सही..ग़लत बतलाऊँ मैं..
तुम्हें बेहतर..और बनाऊँ मैं..
     कहीं तुझमे..फ़ना हो जाऊँ मैं..

***

यह भी है पता.,ये होना नहीं.,
     फिर क्यूँ.,?,मैं यह सब सोचता हूँ..
..,कल तुमने कहा-अब मत सोचो,!
    कुछ पढ़ो-लिखो और बड़े बनो.!
और सच ही कहा.,कुछ ग़लत नहीं.,
     फिर क्यूँ,.?,मैं नादाँ बनता हूँ..
क्यूँ,.?नाम तुम्हारा" लेकर ही,
    मैं ख़ुद को बड़ा समझता हूँ..
है पता मुझे मैं कुछ भी नहीं.,
    फिर क्यूँ,.?,तुम्हें सब-कुछ कहता हूँ..

***

अब क्या,.?,है ये..
क्यूँ,.?,है..
कैसे.,?,है..
इन प्रश्नों से हर क्षण लड़ता हूँ,
..ये इश्क़-विश्क़ तो खैर नहीं..
हाँ,.!, कुछ तो मैं तुमसे करता हूँ..
और क्यूँ,.?, को तो बस अब परे रखो..!
मैं यूँ-ही तुम पे मरता हूँ..
और रही बात इस कैसे,.?,की.,
तो.,जैसे जल को धार करे.,ज्यों नौका को पतवार करे.!
जैसे अमृत को देव करें.,ज्यों विष को मेरे महादेव करें.!
जैसे तारों को रात करे.,ज्यों श्रावण को बरसात करे.!
जैसे ज्वर को तन उष्ण करे.,ज्यों वृन्दावन को कृष्ण करे..!


***

कुछ ऐसे ही हैं...एहसास मेरे,
जो दिल में छुपाये रखता हूँ..
तुम्हें पाना तो मकसद यूँ भी नहीं.,
फिर क्यूँ.,?,खोने से डरता हूँ..
कल तुमने कहा-अब मत मिलना .,!
कुछ भी हो.,मगर चलते रहना..!
और सच ही कहा,कुछ गलत नहीं.,
फिर क्यूँ,.?,उस ओर मैं चलता हूँ..
............जिस ओर किसी चौराहे से,.
                   इक नाज़ुक गली मचलती है..
           जो चार दफ़े बलखाते हुए,
                  आखिर तेरे घर को पहुँचती है..
जिस घर में सभी सयाने हैं,
                  वहीं एक दीवानी" रहती है..
 जो ये कहती है कि.,तुम पागल हो !,
                  पर इसमें भी मैं ख़ुश रहता हूँ.
ये अच्छा तो है पर ठीक नहीं.,
यह बात भी खूब समझता हूँ...
अब किससे कहूँ,.?,और क्यूँ.,?,मैं कहूँ.?
इन दिनों...मैं कैसे रहता हूँ..?
....सारी राहों को भूल-भाल,.इक तेरी गली में रुकता हूँ..
.......तुम जहाँ देर से-ही आती हो .,मैं वक़्त से पहले पहुँचता हूँ..
..........यूँ रुकना फ़ितरत मेरी नहीं...फिर क्यूँ,.?,मैं तुम पर रुकता हूँ...
..,                                                                                        
..,.,,
                   ...फिर क्यूँ,.?,मैं तुम" पर रुकता हूँ...


2 comments:

  1. Wah..!! Main aur meri aawargi!!

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  2. superb bhai!!!! it gives ultimate feeling while reading this. it has great emotions, extended interpreted senses, and originality which is generally found in guys who are in love. keep it up! thank you for sharing this with us.

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